Wednesday 10 May 2017

शबे बरात क्या है? शबे बरात की वास्तविकत

अभी हम शाबान के महीना से गुज़र रहे हैं जो हिजरी  कलेण्डर के अनुसार आठवां महीना है यह महीना रमजान की भूमिका है इसके बाद रमजान का महीना आता है तो अति उचित था कि इस महीने में रोज़ा जैसी इबादत का आयोजन हो।

शाबान में रोज़े का महत्वः

अल्लाह के रसूल मुहम्मद सल्ल. हमारे लिए रोल मॉडल हैंआप का तरीक़ा यह था कि आप इस महीने में अधिक से अधिक रोज़ा रखते थे. सही बुखारी में हज़रत आईशा रज़ियल्लाहु अन्हा से रिवायत है, उन्होंने कहा:

كان رسول الله صلى الله عليه وسلم يصوم حتى نقول لا يفطر، ويفطر حتى نقول لا يصوم وما رأيت رسول الله صلى عليه وسلم استكمل صيام شهر قط إلا رمضان، وما رأيته في شهر أكثر منه صياما في شعبان  .    البخاري (1969)، ومسلم (1156

“अल्लाह के रसूल मुहम्मद सल्ल. रोज़ा रखते चले जाते यहां तक कि हम समझते कि आप रोज़ा रखना न छोड़ेंगे और आप रोज़ा छोड़ते चले जाते यहां तक कि हम समझते कि आप रोज़ा नहीं रखेंगे मैं ने आप सल्ल. को नहीं देखा कि रमजान के सिवा किसी महीने का पूरा रोज़ा रखा होऔर मैं ने उन्हें शाबान से अधिक किसी अन्य महीने का रोज़ा रखते हुए नहीं देखा।”

मुस्नद अहमद की एक लंबी हदीस में हज़रत अनस रज़ियल्लाहु अन्हु के माध्यम से वर्णित है वह कहते हैं:

وكان أحب الصوم إليه في شعبان رواه الإمام أحمد في المسند

अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को शाबान में रोज़ा रखना अधिक पसंदीदा था.  हज़रत अनस एक अन्य रिवायत के अनुसार फरमाते हैं: अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम जितना शाबान के रोज़े रखने का प्रयास करते इतना अन्य महीनों के रोज़े का प्रयास नहीं करते थे।

मुस्नद अहमद, तिर्मिज़ी और नसाई की एक तीसरी रिवायत आती है जो उम्मुल मुमिनीन हज़रत उम्मे सल्मा रज़ी. से वर्णित है, उन्हों ने कहाः

ما رأيت النبي صلى الله عليه وسلم يصوم شهرين متتابعين إلا شعبان ورمضان  رواه احمد والترمذي والنسأئي

  “मैं ने नबी सल्ल. को शाबान और रमज़ान के अतिरिक्त किसी अन्य दो महीनों में निरंतर रोज़ा रखते नहीं देखा “

इस हदीस के ज़ाहिर से यह विदित होता है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम रमज़ान के जैसे पूरा शाबान रोज़ा रखा करते थे, और अभी हमने हज़रत आईशा रज़ियल्लाहु अन्हा वाली जो रिवायत बयान की है उस में आया है कि आप शाबान के अधिक दिनों का रोज़ा रखते थे।

इस सम्बन्ध में कुछ उलमा ने एकत्र की यह शक्ल बताई है कि यह समय के भिन्न होने के कारण था अर्थात् कुछ वर्षों में अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने सारा शाबान ही रोज़ा रखा और कुछ वर्षों में शाबान के अधिक दिनों में रोज़ा रखा।

और कुछ अन्य उलमा का कहना है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम रमज़ान के अतिरिक्त किसी अन्य महीना के रोज़े नहीं रखते थे उन्हों ने हज़रत उम्मे सल्मा रज़ियल्लाहु अन्हा की हदीस का उत्तर दिया है कि इस से अभिप्राय शाबान के अधिक दिन हैं, और जब कोई व्यक्ति किसी महीना में अधिक दिनों के रोज़े रखे तो बरबों की भाषा में यह कहना उचित है कि उसने पूरे महीने के रोज़े रखा, इसी आधार पर हज़रत उम्मे सल्मा रज़ियल्लाहु अन्हा ने फरमाया कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम शाबान के पूरे महीने के रोज़े रखते थे। इसकी अधिक व्याख्या बुखारी और मुस्लिम में हज़रत इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित हदीस से होती है वह बयान करते हैं: कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने रमज़ान के अतिरिक्त किसी भी पूरे महीने का रोज़ा नहीं रखा।  

तात्पर्य यह कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम शाबान के अक्सर दिनों के रोज़े रखते थे.

शाबान के रोज़ों की हिकमतः

सवाल यह है कि शाबान के रोज़े का आप इतना जो एहतमाम करते थे इसका मुख्य कारण क्या था …?  इस विषय को भी अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने स्पष्ट कर दिया है:

इमाम नसाई और अबू दाऊद हज़रत ओसामा बिन ज़ैद रज़ी. के माध्यम से वर्णन करते हैं कि मैंने कहा:

لم أرك تصوم من الشهر ما تصوم من شعبان قال: ذاك شهر يغفل الناس عنه بين رجب ورمضان، وهو شهر ترفع فيه الأعمال إلى رب العالمين عز وجل فأحب أن يرفع عملي وأنا صائم. رواه الإمام أحمد  (21753)، والنسائي  2357  

“ऐ अल्लाह के रसूल! मैं आपको नहीं देखता कि आप किसी भी महीने में इतना रोज़ा रखते हों जितना आप शाबान में रखते हैं?नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इर्शाद फरमाया: “यह रजब और रमज़ान के बीच वह महीना है जिस से लोग ग़फ़लत में पड़े हुए हैंयह वह महीना है जिस में अल्लाह के पास बन्दों के अमल पेश किए जाते हैं, इसलिए मैं इस बात को पसंद करता हूँ कि जब मेरा अमल अल्लाह के पास पेश किया जाए तो मैं रोज़े से हूँ।”

इस हदीस से पता चला कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम शाबान के अधिकतम दिनों का जो रोज़ा रखते थे इसमें दो हिकमतें थीः

पहली हिकमत यह कि इस महीने में लोग ग़फ़लत के शिकार होते हैंऔर यह स्पष्ट है कि जिस समय लोग गफ़लत मैं हों उस समय इबादत के पुण्य में वृधि कर दी जाती है. इसी लिए तहज्जुद की नमाज़ का महत्व है कि उस समय लोग ला-परवाही में होते हैं .गफ़लत के समय किसी काम का करना तबीयत पर शख्त गज़रता है क्योंकि किसी काम के करने वाले अगर अधिक मात्रा में हों तो उनकी अदाएगी आसान हो जाती है जबकि अगर काम के करने वाले कम मात्रा में हों तो उनकी अदाएगी में परेशानी होती है. इसलिए पुण्य भी इसी के अनुपात से रखा गया. इस महीने में ला-परवाही की वजह यह होती है कि कुछ लोग रजब के महीने में रजब के मह्तव के नाम पर बिदात व खुराफ़ात में लग जाते हैंऔर जब शाबान आता है तो सुस्त पड़ जाते हैं.

दूसरी हिकमत यह है कि इस महीने में बन्दों के काम अल्लाह के पास पेश किए जाते हैं और अल्लाह की आज्ञाकारी प्राप्त करने और अमल की स्वीकृति के लिए रोज़ा बहुत महत्व रखता है। 

यही कारण है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम इस महीने में अधिक से अधिक रोज़ा रखते और लोगों की  ग़फ़लत से लाभ उठाते थे, हालांकि आप वह हैं जिस के अगले पिछले प्रत्येक पाप क्षमा कर दिये गये थे, तो फिर हमें इस महीने में रोज़ों का कितना एहतमाम करना चाहिए इसकी कल्पना हम और आप आसानी से कर सकते हैं। बल्कि इन दिनों में रोज़े रखने के साथ साथ सदक़ा दान और क़ुरआन करीम की तिलावत में भी आगे आगे रहना चाहिए, जब शाबान का महीना आता तो हबीब बिन अबी साबित रहि. कहते थेः “यह क़ारियों का महीना है।” और अमर बिन क़ैस अल-मुल्लाई रहि. अपनी दुकान बंद कर देते और क़ुरआन करीम की तिलावत के लिए स्वयं को फ़ारिग़ कर लेते थे।

शाबान के रोज़े रमज़ान के लिए ट्रैनिंग और अभ्यास की हैसियत भी रखते हैं ताकि रमज़ान के कुछ दिनों पहले रोज़े का अनुभव कर लेने से उसकी अदायेगी में किसी प्रकार की परेशानी न आये और पूरी ताक़त और दिलजमई के साथ रमज़ान के रोज़े रख सकें।

शबे बरात की वास्तविकताः

15 शाबान की रात को शबे-बरात कहते हैं। इस रात के सम्बन्ध में विभिन्न प्रकार की हदीसें बयान की जाती हैं जिनका उद्देश्य इस रात का महत्व बयान करना होता है। इस रात के प्रति अल्लाह के रसूल सल्ल. का यह आदेश सही सनद के साथ आया हैः

إن الله ليطلع في ليلة النصف من شعبان فيغفر لجميع خلقه إلا لمشرك أو منافقروى الطبراني وابن ماجة والبيهقي وصححه الألباني في السلسلة الصحيحة 1144

अल्लाह तआला शाबान की 15वीं रात को अपनी पूरी सृष्टि की ओर (दया की दृष्टि से) देखता है फिर मुश्रिक और झगड़ालू के अतिरिक्त शेष सभी सृष्टि के पापों को क्षमा कर देता है। (अल-तबरानी, इब्ने हिब्बान, बैहक़ी)

इस हदीस को बयान करने के बाद अल्लामा अल-बानी रहि. लिखते हैं :  सारांश यह है कि यह हदीस प्रत्येक सनदों के साथ निःसंदेह सही है। (सिलसिला सहीहाः अलबानीः1144)

यही हदीस शाबान की 15वीं रात की श्रेष्ठता के सम्बन्ध में सही सनद के साथ बयान की जाती है इस के अतिरिक्त जितनी हदीसें साधारण रूप में बयान की जाती हैं वह सभी बिल्कुल कमज़ोर बल्कि बनावटी हैं। जैसेः

(1) शाबान मेरा महीना है और रमज़ान अल्लाह का।  अलबनी ने इसे मौज़ूअ अर्थात् बनावटी सिद्ध किया है (ज़ईफ़ अल-जामि लिल-अल-बानी 3402)

(2) निःसंदेह अल्लाह शाबान की 15वीं रात को आसमाने दुनिया पर आता है और फिर इतने लोगों के पापों को क्षमा करता है जितने बनू कल्ब की बकरियों के बात हैं। (तिर्मिज़ी 739, इस हदीस को भी अल-बानी ने ज़ईफ़ ठहराया है)

(3) उसी प्रकार इस रात में नमाज़ें पढ़ने के सम्बन्ध में जो रिवायतें आई हैं वह सब बनावटी हैं, जैसे हज़ारी नमाज, सलातुर्रग़ाइब आदि। (अल-मौजूआत 2/440-443)  

शबे-बरात में क्या किया जाए  

शबे-बरात के सम्बन्ध में जो सही रिवायत आई है उस में इतना है कि अल्लाह मुश्रिक और झगड़ालू के अतिरिक्त सब के पापों को क्षमा कर देता है, इसमें कीसी प्रकार की इबादत का वर्णन नहीं है इस लिए इस रात की सार्वजनिक क्षमा का अधिकारी बनने के लिए आवश्यकता इस बात की है कि इनसान अपनी आस्था ठीक रखे, अल्लाह के अतिरिक्त किसी अन्य से न मांगे। अल्लाह के अतिरिक्त किसी अन्य पर विश्वास न रखे। इसके साथ साथ मुसलमानों के सम्बन्ध में अपना हृदय शुद्ध रखे और किसी से जलन और ईर्ष्या आदि न रखे। 

शबे-बरात जब क्षमा की रात है। तो उस में इबादत क्यों न की जाएः

 यदि कोई पूछे कि शबे बरात जब इबादत की रात है तो उसमें इबादत क्यों न की जाए तो इस का उत्तर यह है कि हमने जो कलमा पढ़ा है वह है :

لا اله الا الله محمد رسول الله

अल्लाह के अतिरिक्त कोई इबदत के योग्य नहीं और मुहम्मद सल्ल. अल्लाह के रसूल हैं। अर्थात् हम अल्लाह की इबादत अपने मन से नहीं अपितु मुहम्मद सल्ल. के बताए हुए तरीक़ के अनुसार करेंगे। इस लिए हमें देखना होगा कि आपने कौन से अवसर पर कौन सी इबादत की है ताकि हम उनको स्वयं के लिए आदर्श बना सकें। अहादीस और सीरत की पुस्तकों के अध्ययन से पता चलता है कि इस रात में अल्लाह के रसूल और आपको सहाबा से कोई अमल करना साबित नहीं है। और किसी रात की श्रेष्ठा सिद्ध होने से कोई ज़रूरी नहीं कि उस रात में इबादत भी की जाए…उदाहरण स्वरुप अल्लाह के रसूल ने शुक्रवार के दिन और रात का बहुत महत्व बयान फरमाया लेकिन उसके बावजूद यह आदेश दिया कि :       

 لا تخصوا ليلة الجمعة بقيام من بين الليالي، ولا تخصوا يوم الجمعة بصيام من بين الأيام، إلا أن يكون في صوم يصومه أحدكم  .  رواه مسلم

रातों में से मात्र शुक्रवार की रात को क़याम के लिए और दिनों में से मात्र शुक्रवार के दिन को रोज़ा कि लिए विषेश न करो, हां यदि शुक्रवाद का दिन उन दिनों में आ जाए जिन में तुम में से कोई व्यक्ति रोज़ा रखने का आदी हो तो उसका रोज़ा रखने में कोई हर्ज नहीं है।

क्या शाबान की 15वीं रात फ़ैसले की रात है?

कुछ लोग शाबान की 15वीं रात को फैसले की रात सिद्ध करने के लिए अल्लाह के इस आदेश को प्रमाण के रूप में पेश करते हैं निःसंदेह हमने इसे बरकत वाली रात में उतारा है, निःसंदेह हम डराने वाले हैं, इस रात में हर दृढ़ काम का फैसला किया जाता है। (सूरः अल-दुख़ान 3-4)

हालांकि इस आयत में बरकत वाली रात से अभिप्राय लैलतुल क़द्र है, जिसमें क़ुरआन उतरा है, अतः क़ुरआन ही से हमें इसका उत्तर मिल जाता हैः अल्लाह ने फरमायाःवह

 रमज़ान का महीना है जिसमें क़ुरआन को उतारा गया। (सूरः अल-बक़रः185  )

दूसरे स्थान पर अल्लाह ने लैलतुल कद्र के सम्बन्ध में फरमाया नि:संदेह हमने इसे तैलतुल क़द्र में उतारा है। (सूरः अल-क़द्र 1) और लैलतुल कद्र शाबना में नहीं अपितु रमजान के अन्तिम दस दिनों की विषम रातों में आती है। और इसी में इनसान के जीवन, मृत्यु, रिज्क़ आदि का फैसला किया जाता है। ज्ञात यह हुआ कि 15वीं शाबान की रात को फैसलों की रात सिद्ध करना बिल्कुल ग़लत है और इसकी कोई हैसियत नहीं।

15 शाबान के बाद रोज़े रखने का हुक्मः

अल्लाह के रसूल सल्ल. रमज़ान के आगमण से एक दो दिन पूर्व रोज़ा रखने से मना किया है, बुखारी और मुस्लिम की रिवात है अल्लाह के रसूल सल्ल. ने फरमायाः

لا تقدموا رمضان بصوم يوم ولا يومين إلا رجل كان يصوم صوماً فليصمه . رواه البخاري و مسلم

“रमज़ान के एक दो दिन पहले से रोज़ा मत रखो, हां जो कोई (आदत के अनुसार) पहले से रोज़ा रखता आ रहा है तो इसमें कोई हरज की बात नहीं। “

इस लिए एक आदमी 15 शाबान के बाद भी रोज़ा रख सकता है परन्तु उसे चाहिए कि रमज़ान के आगमण से दो दिन पहले रोज़ा रखना बंद कर दे, रही वह हदीस कि जब 15 शाबान गुज़र जाए तो रोज़े मत रखो ( अबूदाऊद, तिर्मिज़ी ) तो यह रिवायत वास्तव मैं ज़ईफ और कमज़ोर है। इमाम अहमद रही. ने कहा कि यह रिवायत शाज़ है क्यों कि यह हज़रत अबू  हुरैरा रजी. की रिवायत के विरोद्ध है जिस में आया है कि रमज़ान के एक दो दिन पहले से रोज़ा मत रखो। और यदि हम रिवायत को सही भी मान लें तो इतना कहा जा सकता है कि 15 शाबान के बाद रोज़े रखना मकरूह होगा हराम नहीं।

अन्त में अल्लाह से दुआ है कि वह हम सब को शाबान में अपने नबी मुहम्मद  सल्ल. के आदेशानुसार जीवन बिताने की तौफीक़ दे और हर उस काम से बजाए जो अल्लाह के रसूल सल्ल. से प्रमाणित नहीं है। आमीन 

Tuesday 11 April 2017

" शेर-ए-ख़ुदा हज़रत अली रज़िअल्लाहु तआला अन्हु "

इस्लाम में इस बात पे हमेशा से जोर दिया गया है कि महापुरुषों ,पैगम्बरों, नबियों और इमाम को हमेशा किसी न किसी अवसर में याद किया करो जिससे उनके किरदार को आज का नौजवान समझे और खुद को संवार के एक बेहतरीन इंसान बना सके | इसी लिए अक्सर मुसलाम माहापुरुशों के जन्म दिवस पे ख़ुशी और म्रत्यु में दुःख प्रकट कर के उनको याद करता है | 


यह रमजान का मुबारक महीना है जिसमे हर इंसान यही कोशिश करता है की गुनाहों से बचे और साल भर में यदि कोई बुरी आदत पद गयी हो तो उस बुराई को इस महीने में खुद से दूर कर सके | लेकिन इसी महीने की १९ तारिख को मुसलमानों के खलीफा हजरत अली (अ.स) को अब्दुर्रहमान पुत्र मुलजिम नाम के व्यक्ति ने उनपे तलवार से हमला उस समय किया जब वो अल्लाह के आगे सजदे में थे |गया तथा दो दिन पश्चात रमज़ान मास की 21 वी रात्री मे नमाज़े सुबह से पूर्व आपने इस संसार को त्याग दिया। 


हजरत अली (अ.स) का किरदार इतना बलंद था की जब उन्होंने तीन दिन बिस्तर पे रह के दुनिया छोड़ दी और उनको दफन के लिए ले जाया जा रहा था तो गरीबों के मोहल्ले से किसी ने पुछा यह कौन था और जब लोगों ने बताया की यह हजरत अली(अ.स) थे और तीन दिन बीमार रह के दुनिया से चले गए तो वो सारे गरीब रूने लगे की हाय अब उनका क्या होगा यही तो था जो रोज़ उनके घरों में अनाज रात के अँधेरे में पहुँचाया करता था | 

यह वही अली (अ.स) थे जो कहा करते थे कि मेरी रचना केवल इसलिए नहीं की गई है कि चौपायों की भांति अच्छी खाद्य सामग्री मुझे अपने में व्यस्त कर ले या सांसारिक चमक-दमक की ओर मैं आकर्षित हो जाऊं और उसके जाल में फंस जाऊं। मानव जीवन का मूल्य अमर स्वर्ग के अतिरिक्त नहीं है अतः उसे सस्ते दामों पर न बेचें। हज़रत अली का यह कथन इतिहास के पन्ने पर एक स्वर्णिम समृति के रूप में जगमगा रहा है कि ज्ञानी वह है जो अपने मूल्य को समझे और मनुष्य की अज्ञानता के लिए इतना ही पर्याप्त है कि वह स्वयं अपने ही मूल्य को न पहचाने। 



हजरत अली (अ.स) ने अपनी खिलाफत के समय अद्धितीय जनतांत्रिक सरकार की स्थापना की। उनके शासन का आधार न्याय था। समाज में असत्य पर आधारित या किसी अनुचति कार्य को वे कभी भी सहन नहीं करते थे। उनके समाज में जनता की भूमिका ही मुख्य होती थी और वे कभी भी धनवानों और शक्तिशालियों पर जनहित को प्राथमिक्ता नहीं देते थे। जिस समय उनके भाई अक़ील ने जनक्रोष से अपने भाग से कुछ अधिक धन लेना चाहा तो हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने उन्हें रोक दिया। उन्होंने पास रखे दीपक की लौ अपने भाई के हाथों के निकट लाकर उन्हें नरक की आग के प्रति सचेत किया। वे न्याय बरतने को इतना आवश्यक मानते थे कि अपने शासन के एक कर्मचारी से उन्होंने कहा था कि लोगों के बीच बैठो तो यहां तक कि लोगों पर दृष्टि डालने और संकेत करने और सलाम करने में भी समान व्यवहार करो। यह न हो कि शक्तिशाली लोगों के मन में अत्याचार का रूझान उत्पन्न होने लगे और निर्बल लोग उनके मुक़ाबिले में न्याय प्राप्ति की ओर से निराश हो जाएं। 

यह वही अली (अ.स० थे जिनकी पत्नी हजरत मुहम्मद (स.अव) की बेटी थी और बेटे इमाम हसन और हुसैन (अ.स) थे |यह वही अली थे जिनकी इस्लाम के लिए दी गयी कुर्बानियों के कारण यजीद जैसे ज़ालिम ने उनके बेटे इमाम हुसैन (अ.स) को शहीद कर दिया | हजरत अली (अ.स) के कथन आज भी लोगों को सीख देते हैं और गुमराही से बचाते हैं | 

  • हजरत अली (अ.स) का कथन है कि वतन से मोहब्बत ईमान की निशानी है : हज़रत अली(अ.स.) और सभी इंसान या तो तुम्हारे धर्म भाई हैं या फिर इंसानियत के रिश्ते से भाई हैं |
  • हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम ने कहा कि अपने मित्रों से प्रेम करो क्योंकि अगर तुम उनके साथ प्रेम नही करोगे तो वह एक दिन तुम्हारे शत्रु बन सकते हैं। तथा अपने शत्रुओं से भी प्रेम करो क्योकि वह इस प्रकार एक दिन आपके मित्र बन सकते है।
  • हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम ने अलैहिस्सलाम ने कहा कि हर व्यक्ति का मूल्य उसके द्वारा किये गये पुण्यों के बराबर है।
  • हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम ने कहा कि इबादत से कोई लाभ नही है अगर इबादत तफ़क़्क़ो (धर्म निर्देशों को समझने का ज्ञान) के साथ न की जाये। ज्ञान से कोई लाभ नही अगर उसके साथ चिंतन न हो। कुऑन पढ़ने से कोई लाभ नही अगर अल्लाह के आदेशों को समझने का प्रयत्न न किया जाये।
  • हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम ने कहा कि मैं आप लोगों के विषय मे दो बातों से डरता हूँ
1- इच्छाओं की अधिकता जिसके कारण व्यक्ति परलोक को भूल जाता है। 
2- इद्रियों का अनुसरण जो व्यक्ति को वास्तविक्ता से दूर कर देता है। 
  • हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम ने कहा कि मर जाओ परन्तु अपमानित न हो, डरो नहीं बेझिजक रहो क्योंकि यह जीवन दो दिन का है। एक दिन तेरे लिए लाभ का है तथा एक दिन हानि का लाभ से प्रसन्न व हानि से दुखित न हो क्योकि इन्ही दोनो के द्वारा तुझे परखा जायेगा।
  • हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम ने कहा कि अमानत (धरोहर) रखी हुई वस्तुओं को वापस लौटाओ। चाहे वह पैगम्बरों की सन्तान के हत्यारों की ही क्यों न हों। हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम ने कहा कि अल्लाह छः समुदायों को उनके छः अवगुणो के कारण दण्डित करेगा। 
    1-अरबों को तास्सुब( अनुचित पक्ष पात ) के कारण 
    2-ग्रामों के मुख्याओं को उनके अहंकार के कारण 
    3- शसकों को उनके अत्याचार के कारण 
    4- धर्म विद्वानों को उनके हसद (ईर्ष्या) के कारण 
    5- व्यापारियों को उनके विश्वासघात के कारण 
    6- ग्रामवासियों को उनकी अज्ञानता के कारण 
  • हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम ने कहा कि जब यह दुनिया किसी को चाहती है तो दूसरों की अच्छाईयां भी उससे सम्बन्धित कर देती है। तथा जब किसी से शत्रुता करती है तो उसकी अच्छाईयां भी उससे छीन लेती हैं।
  • हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम ने कहा कि याद रखो कि पापों का आनंद शीघ्र समाप्त हो जाता है। तथा पापों का अप्रियः अन्त सदैव बाक़ी रहता है
1- स्वर्ग की सम्पत्ति
हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम ने कहा कि अपने पुण्यों को छुपाना विपत्तियो पर सब्र (संतोष) करना व विपत्तियों का गिला न करना यह स्वर्ग की सम्पत्ति है।
2- पारसा (विरक्त) व्यक्ति की विशेषताऐं
हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम ने कहा कि पारसा व्यक्ति वह है जो हलाल कार्यों मे उलझ कर अल्लाह के धन्यवाद को न भूले तथा हराम कार्यो के सम्मुख अपने धैर्य को बनाए रखे।
3- प्रेम
हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम ने कहा कि अपने मित्रों से प्रेम करो क्योंकि अगर तुम उनके साथ प्रेम नही करोगे तो वह एक दिन तुम्हारे शत्रु बन सकते हैं। तथा अपने शत्रुओं से भी प्रेम करो क्योकि वह इस प्रकार एक दिन आपके मित्र बन सकते है।
4- व्यक्ति का मूल्य
हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम ने अलैहिस्सलाम ने कहा कि हर व्यक्ति का मूल्य उसके द्वारा किये गये पुण्यों के बराबर है।
5- इबादत ज्ञान व कुऑन
हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम ने कहा कि इबादत से कोई लाभ नही है अगर इबादत तफ़क़्क़ो (धर्म निर्देशों को समझने का ज्ञान) के साथ न की जाये। ज्ञान से कोई लाभ नही अगर उसके साथ चिंतन न हो। कुऑन पढ़ने से कोई लाभ नही अगर अल्लाह के आदेशों को समझने का प्रयत्न न किया जाये।
6- इच्छाओं की अधिकता
हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम ने कहा कि मैं आप लोगों के विषय मे दो बातों से डरता हूँ
1- इच्छाओं की अधिकता जिसके कारण व्यक्ति परलोक को भूल जाता है।
2- इद्रियों का अनुसरण जो व्यक्ति को वास्तविक्ता से दूर कर देता है।
7- मित्रता
हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम ने कहा कि अपने मित्र के शत्रु से मित्रता न करो क्योंकि इससे आपका मित्र आपका शत्रु हो जायेगा।
8- सब्र के प्रकार
हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम ने कहा कि सब्र तीन प्रकार का है।
1-विपत्ति पर सब्र करना।
2-अज्ञा पालन पर सब्र करना।
3-पाप न करने पर सब्र करना।
9- दरिद्रता
हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम ने ने कहा कि जो व्यक्ति दरिद्रता मे लिप्त हो जाये और यह न समझे कि यह अल्लाह की ओर से उस के लिए एक अनुकम्पा है तो उसने एक इच्छा को समाप्त कर दिया। और जो धनी होने पर यह न समझे कि यह धन अल्लाह की ओर से ग़ाफ़िल (अचेतन) करने के लिए है तो वह भयंकर स्थान पर संतुष्ट हो गया।
10- प्रसन्नता व दुखः
हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम ने कहा कि मर जाओ परन्तु अपमानित न हो, डरो नहीं बेझिजक रहो क्योंकि यह जीवन दो दिन का है। एक दिन तेरे लिए लाभ का है तथा एक दिन हानि का लाभ से प्रसन्न व हानि से दुखित न हो क्योकि इन्ही दोनो के द्वारा तुझे परखा जायेगा।
11- मशवरा (परामर्श)
हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम ने ने कहा कि जो व्यक्ति भलाई चाहता है वह कभी परेशान नही होता । तथा जो अपने कार्यों मे मशवरा करता है वह कभी लज्जित नही होता।
12- देश प्रेम
हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम ने कहा कि शहरों की आबादी देश प्रेम पर निर्भर है।
13- ज्ञान
हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम ने कहा कि ज्ञान के तीन क्षेत्र हैं
1- धार्मिक आदेशों का ज्ञान
2- शरीर के लिए चिकित्सा ज्ञान
3- बोलने के लिए व्याकरण का ज्ञान
14- विद्वत्ता पूर्ण कथन
हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम ने कहा कि विद्वत्ता पूर्ण बात करने से मान बढ़ता है।
15- दरिद्रता व दीर्घायु
हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम ने कहा कि अपने आपको दरिद्रता व दीर्घायु का उपदेश न दो।
16- मोमिन
हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम ने कहा कि मोमिन (आस्तिक) को अपशब्द कहना इस्लामी आदाशों की अवहेलना है। मोमिन से जंग करना कुफ़्र है। व उसके माल की रक्षा उसके जीवन की रक्षा के समान है।
17- पढ़ना व चुप रहना
हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम ने कहा कि पढ़ो ताकि ज्ञानी बनो। चुप रहो ताकि हर प्रकार की हानि से बचो।

18- दो भयानक बातें
हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम ने कहा कि दरिद्रता के भय व अभिमान ने मनुष्य को हलाक (मार डालना) कर दिया है।।
19- अत्याचारी
हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम ने कहा कि अत्याचार करने वाला, अत्याचार मे साहयता करने वाला तथा अत्याचार से प्रसन्न होने वाला तीनों अत्याचारी हैं।
20- सरहानीय सब्र (धैर्य)
हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम ने कहा कि विपत्तियों पर सब्र करना सराहनीय हैं परन्तु अल्लाह द्वारा हराम (निषिद्ध) की गयी वस्तुओं से दूर रहने पर सब्र करना यह अति सराहनीय है।
21- धरोहर वस्तुओं का लौटाना
हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम ने कहा कि अमानत (धरोहर) रखी हुई वस्तुओं को वापस लौटाओ। चाहे वह पैगम्बरों की सन्तान के हत्यारों की ही क्यों न हों।
22- प्रसिद्धि
हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम ने कहा कि अपने आपको प्रसिद्ध न करो ताकि आराम से रहो । अपने कार्यों को छुपाओ ताकि पहचाने न जाओ। अल्लाह ने तुझे दीन समझा दिया है अतः तेरे लिए कोई कठिनाई नही है न तू लोगों को पहचान न लोग तुझे पहचाने।
23- छः समुदायों का दण्ड
हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम ने कहा कि अल्लाह छः समुदायों को उनके छः अवगुणो के कारण दण्डित करेगा।
1-अरबों को तास्सुब( अनुचित पक्ष पात ) के कारण
2-ग्रामों के मुख्याओं को उनके अहंकार के कारण
3- शसकों को उनके अत्याचार के कारण
4- धर्म विद्वानों को उनके हसद (ईर्ष्या) के कारण
5- व्यापारियों को उनके विश्वासघात के कारण
6- ग्रामवासियों को उनकी अज्ञानता के कारण
24- इमान के अंग
इमान अली अलैहिस्सलाम ने कहा कि इमान के चार अंग हैं।
1- अल्लाह पर भरोसा।
2- अपने कार्यों को अल्लाह पर छोड़ना।
3- अल्लाह के आदेशों के सम्मुख झुकना।
4- अल्लाह के फ़ैसलों पर राज़ी रहना।
25- सद्व्यवहारिक उपदेश
हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम ने कहा कि अपने व्यवहार को अच्छाईयों से सुसज्जित करो ।तथा गंभीरता व सहिष्णुता को धारण करो।
26- बुरे कार्यों से दूरी
हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम ने कहा कि दूसरे लोगों के कार्यों मे अधिक सख्त न बनो। तथा बुरे कार्यों से दूर रह कर अपने व्यक्तित्व को उच्चता प्रदान करो।
27- मनुष्य की रक्षा
हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम ने कहा कि कोई व्यक्ति ऐसा नहीं है जिसकी सुरक्षा का प्रबन्ध अल्लाह की और से न होता हो । वह सुरक्षा करने वाले कुए में गिरने दीवार के नीचे दबने व नरभक्षी पशुओं से उसकी रक्षा करते हैं । परन्तु जब उसकी मृत्यु का समय आजाता है तो वह अपनी सुरक्षा को उससे हटा लेते है।
28-भविषय
हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम ने कहा कि मानव पर एक ऐसा समय आयेगा कि उस समय कोई प्रतिष्ठा न पायेगा मगर एक ऐसा आदमी जिसकी कोई अहमियत न होगी।उस समय अल्लाह के आदेशों की अवहेलना करने वाले को सद् व्यवहारी व बुद्धिमान तथा विश्वासघाती को धरोहर समाझा जायेगा। उस समय सार्वजनिक समप्ति को व्यक्तिगत सम्पत्ति व सदक़ा देने को हानि समझा जायेगा।इबादत को लोगों पर अत्याचार ज़रिया बनाया जायेगा। ऐसे समय में स्त्रीयां शासक होंगी दासियों से परामर्श किया जायेगा तथा बच्चे गवर्नर होंगें।
29- झगड़े के समय होशयारी
हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम ने कहा कि झगड़े के समय ऊँटनी के दो साल के बच्चे के समान बन जाओ क्योंकि न उससे सवारी का काम लिया जासकता है और न ही उसका दूध दुहा जासकता है।अर्थात झगड़े से इस प्रकार दूर रहो कि कोई आपको उसमे लिप्त न कर सके।
30- दुनिया
हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम ने कहा कि जब यह दुनिया किसी को चाहती है तो दूसरों की अच्छाईयां भी उससे सम्बन्धित कर देती है। तथा जब किसी से शत्रुता करती है तो उसकी अच्छाईयां भी उससे छीन लेती हैं।
31- अशक्त व्यक्ति
हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम ने कहा कि कमज़ोर व्यक्ति वह है जो किसी को अपना मित्र न बना सके। तथा उससे अधिक कमज़ोर वह व्यक्ति है जो किसी को मित्र बनाने के बाद उससे मित्रता को बाक़ी न रख सके।
32- -पापों का परायश्चित
हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम ने कहा कि गुनाहाने कबीरा (बड़े पापों) का परायश्चित यह है कि दुखियों के दुखः को दूर किया जाये तथा सहायता चाहने वालों की सहायता की जाये।
33- बुद्धि मत्ता का लक्ष्ण
हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम ने कहा कि जब मनुष्य की अक़्ल कामिल(बुद्धि परिपक्व )हो जाती है तो वह कम बोलने लगता है।
34- अल्लाह से सम्पर्क
हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम ने कहा कि जो व्यक्ति अल्लाह से अपना सम्पर्क बनाता है तो अल्लाह दूसरे व्यक्तियों से भी उसका सम्बन्ध स्थापित करा देता है। जो परलोक के लिए कार्य करता है अल्लाह उसके सांसारिक कार्यों को स्वंय आसान कर देता है। तथा जो अपनी आत्मा को स्वंय उपदेश देता है अल्लाह उसकी रक्षा करता है।
35- कमी व वृद्धि
हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम ने कहा कि दो व्यक्ति मेरे कारण मारे जायेंगे (1) वह व्यक्ति जो प्रेम के कारण मुझे अत्य अधिक बढ़ायेगा (2)वह व्यक्ति जो शत्रुता के कारण मुझे बहुत कम आंकेगा।
36- किसी के कथन को कहना
हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम ने कहा कि आप जब भी कोई कथन सुनो तो पहले उसको बुद्धि के द्वारा समझो तथा परखो बाद में किसी दूसरे से कहो। क्योंकि ज्ञान को नक़्ल करने वाले बहुत हैं परन्तु उसके नियमों का पालन करने वाले बहुत कम है।
37- पापों से दूरी का फल
हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम ने कहा कि जो व्यक्ति पाप करने की शक्ति के होते हुए भी पाप न करे वह फ़रिश्तों के समान है। तथा धर्म युद्ध में शहीद होने वाले व्यक्ति को भी उससे अधिक बदला नहीं दिया जायेगा।
38- पापों का अप्रियः अन्त
हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम ने कहा कि याद रखो कि पापों का आनंद शीघ्र समाप्त हो जाता है। तथा पापों का अप्रियः अन्त सदैव बाक़ी रहता है।
39- दुनिया की विशेषता
हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम ने कहा कि सांसारिक मोह माया की विशेषता यह है कि यह धोखा देती है, हानि पहुँचाती है व चली जाती है।
40- अन्तिम चरण के अनुयायी
हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम ने कहा कि मानवता पर एक ऐसा समय आयेगा कि जब इस्लाम केवल नाम मात्र के लिए होगा।कुऑन केवल एक रस्म बनकर रह जायेगा। उस समय मस्जिदें नई व सुसज्जित परन्तु मार्ग दर्शन से खाली होंगी। तथा इन मस्जिदों को बनाने वाले धरती के सबसे बुरे प्राणी होंगे वह फ़िसाद फैलायेंगे। जो फ़िसाद से दूर भागना चाहेगा वह उसको फ़िसाद की ओर पलटायेंगें।अल्लाह तआला अपनी सौगन्ध खाकर कहता है कि मैं ऐसे व्यक्तियों को इस प्रकार फसाऊँगा कि सूझ बूझ रखने वाले भी परेशान हो जायेंगे। हम अल्लाह से चाहते हैं कि हमारी असतर्कता को अनदेखा करे

Friday 10 June 2016

Roza Kya Aur Kyo


          जानिए – रोज़ा क्या और क्यों ?
» इंसान के बुनियादी सवाल !!! – इस सम्पूर्ण विश्व और इंसान का अल्लाह (ईश्वर) एक है। ईश्वर ने इंसान को बनाया और उसकी सभी आवश्यकताओं को पूरा करने का प्रबंध किया। इंसान को इस ग्रह पर जीवित रहने के लिए लाइफ स hiपोर्ट सिस्टम दिया।

इंसान को उसके मूल प्रश्नों का उत्तर भी बताया।
– इंसान को क्या कोई बनाने वाला है? अगर है, तो वह क्या चाहता है?
– इंसान को पैदा क्यों किया गया?
– इंसान के जीवन का उद्देश्य क्या है? अगर है, तो उस उद्देश्य को पाने का तरीक़ा क्या है?
– इंसान को आज़ाद पैदा किया गया या मजबूर?
– अच्छी ज़िन्दगी कैसे गुज़ारी जा सकती है?
– मरने के बाद क्या होगा? इत्यादि। यह इंसान के बुनियादी सवाल हैं, जिनका जानना उसके लिए बहुत ज़रुरी है। इंसानों में से ईश्वर ने कुछ इंसानों को चुना, जो पैग़म्बर (ईशदूत) कहलाए। उन्हें अपना सन्देश भेजा, जो सभी इंसानों के लिए मार्गदर्शन है। पहले इंसान व पैग़म्बर हज़रत आदम (अलैहि॰) से लेकर आख़िरी पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम) तक अनेक ईशदूत आए, जो कि हर क़ौम में भेजे गए। सभी ईशदूतों ने लोगों को उन्हीं की भाषा में ईश्वर का सन्देश दिया।

» प्रश्न यह है कि बार-बार अनेक पैग़म्बर क्यों भेजे गए?
वास्तव में प्राचीनकाल में परिवहन एवं संचार के साधनों की कमी के कारण, एक जगह की ख़बर दूसरी जगह पहुँचना मुश्किल थी।
दूसरे यह कि लोग ईश्वर के सन्देश को बदल देते थे, तब ज़रुरत होती थी कि दोबारा ईश्वर का सन्देश आए।
सभी पैग़म्बरों ने एक ही सन्देश दिया कि ईश्वर एक है, दुनिया इम्तिहान की जगह है और मरने के बाद जिन्दगी है।  आख़िरी पैग़म्बर पर ईश्वर का जो अन्तिम सन्देश (क़ुरआन) उतरा, उसकी हिफ़ाज़त की ज़िम्मेदारी स्वयं ईश्वर ने ली है। चौदह सौ साल से अधिक हो चुके हैं, मगर आज तक उसे बदला नहीं जा सका। ईश्वर का सन्देश अपनी असल शक्ल (मूलरूप) में मौजूद है, इसलिए अब ज़रूरत नहीं है कि कोई नया ईशदूत आए।

» क़ुरआन का केन्द्रीय विषय इंसान है। क़ुरआन इंसान के बारे में ईश्वर की स्कीम को बताता है।
क़ुरआन बताता है कि इंसान को सदैव के लिए पैदा किया गया है और उसे शाश्वत जीवन दिया गया है। ईश्वर ने इंसान के जीवन को दो भागों में बाँटा है :
१. मौत से पहले का समय, जो अस्थाई है, इंसान के इम्तिहान के लिए है।
२. मौत के बाद का समय, जो स्वर्ग या नरक के रूप में दुनिया में किए गए अच्छे या बुरे कर्मों का बदला मिलने के लिए है। यह कभी न ख़त्म होने वाला स्थाई दौर है। इन दोनों के बीच में मौत एक तबादले (Transition) के रूप में है।

» इंसान की ज़िन्दगी का उद्देश्य –
क़ुरआन बताता है कि दुनिया इंसान के लिए एक परीक्षास्थल है। इंसान की ज़िन्दगी का उद्देश्य ईश्वर की इबादत (उपासना) है। (क़ुरआन, 51:56) इबादत का अर्थ ईश्वर केन्द्रित जीवन (God-centred life) व्यतीत करना है। इबादत एक पार्ट-टाइम नहीं, बल्कि फुल टाइम अमल है, जो पैदाइश से लेकर मौत तक जारी रहता है।
वास्तव में इंसान की पूरी ज़िन्दगी इबादत है, अगर वह ईश्वर की मर्ज़ी के अनुसार व्यतीत हो। ईश्वर की मर्ज़ी के अनुसार जीवन व्यतीत करने का आदी बनाने के लिए, आवश्यक था कि कुछ प्रशिक्षण भी हो, इसलिए नमाज़, रोज़ा (निराहार उपवास), ज़कात और हज को इसी प्रशिक्षण के रूप में रखा गया। इनमें समय की, एनर्जी की और दौलत की क़ुरबानी द्वारा इंसान को आध्यात्मिक उत्थान के लिए और उसे व्यावहारिक जीवन के लिए लाभदायक बनाने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। इस ट्रेनिंग को बार-बार रखा गया, ताकि इंसान को अच्छाई पर स्थिर रखा जा सके, क्योंकि इंसान अन्दर व बाहर से बदलने वाला अस्तित्व रखता है।
ईश्वर सबसे बेहतर जानता है कि कौन-सी चीज़ इंसान के लिए लाभदायक है और कौन-सी हानिकारक। ईश्वर इंसान का भला चाहता है इसलिए उसने हर वह काम
जिसके करने से इंसान स्वयं को हानि पहुँचाता, करना हराम (अवैध) ठहराया और हर उस काम को जिसके न करने से इंसान स्वयं को हानि पहुँचाता, इबादत कहा और उनका करना इंसान के लिए अनिवार्य कर दिया।
ईश्वर का अन्तिम सन्देश क़ुरआन, दुनिया में पहली बार रमज़ान के महीने में अवतरित होना शुरू हुआ। इसीलिए रमज़ान का महीना क़ुरआन का महीना कहलाया। इसे क़ुरआन के मानने वालों के लिए शुक्रगुज़ारी का महीना बना दिया गया और इस पूरे महीने रोज़े रखने अनिवार्य किए गए।

» रोज़ा एक इबादत है। रोज़े को अरबी भाषा में ‘‘सौम’’ कहते हैं। इसका अर्थ ‘‘रुकने और चुप रहने’’ के हैं। क़ुरआन में इसे ‘‘सब्र’’ भी कहा गया है, जिसका अर्थ है ‘स्वयं पर नियंत्रण’ और स्थिरता व जमाव (Stability)।
इस्लाम में रोज़े का मतलब होता है केवल ईश्वर के लिए, भोर से लेकर सूरज डूबने तक खाने-पीने, सभी बुराइयों (और पति-पत्नी का सहवास करने) से स्वयं को रोके रखना। अनिवार्य रोज़े, जो केवल रमज़ान के महीने में रखे जाते हैं और यह हर व्यस्क मुसलमान के लिए अनिवार्य हैं।
क़ुरआन में कहा गया है—
♥ अल-कुरान : ‘‘ऐ ईमान लाने वालो! तुम पर रोज़े अनिवार्य किए गए, जिस प्रकार तुम से पहले के लोगों पर किए गए थे, शायद कि तुम डर रखने वाले और परहेज़गार बन जाओ।’’ – (क़ुरआन, 2:183)

♥ अल-कुरान : रमज़ान का महीना जिसमें क़ुरआन उतारा गया लोगों के मार्गदर्शन के लिए, और मार्गदर्शन और सत्य-असत्य के अन्तर के प्रमाणों के साथ। अतः तुममें जो कोई इस महीने में मौजूद हो, उसे चाहिए कि उसके रोज़े रखे और जो बीमार हो या यात्रा में हो तो दूसरे दिनों से गिनती पूरी कर ले। ईश्वर तुम्हारे साथ आसानी चाहता है, वह तुम्हारे साथ सख़्ती और कठिनाई नहीं चाहता और चाहता है कि तुम संख्या पूरी कर लो और जो सीधा मार्ग तुम्हें दिखाया गया है, उस पर ईश्वर की बड़ाई प्रकट करो और ताकि तुम कृतज्ञ बनो।’’ – (क़ुरआन, 2:185)

रोज़ा एक बहुत महत्वपूर्ण इबादत है। हर क़ौम में, हर पैग़म्बर ने रोज़ा रखने की बात कही।। क़ुरआन के अनुसार रोज़े का उद्देश्य इंसान में तक़वा या संयम (God Consciousness) पैदा करना है। तक़वा का एक अर्थ है — ‘ईश्वर का डर’ और दूसरा अर्थ है — ‘ज़िन्दगी में हमेशा एहतियात वाला तरीक़ा अपनाना।’

• ईश्वर का डर एक ऐसी बात है जो इंसान को असावधान होने अर्थात् असफल होने से बचा लेता है।
कु़रआन की आयत (Verse) ‘ताकि तुम डर रखने वाले और परहेज़गार बन जाओ’ (2:183), से पता चलता है कि रोज़ा, इंसान में ईश्वर का डर पैदा करता है और उसे परहेज़गार (संयमी) बनाता है। ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया—
» मेह्फुम-ए-हदीस : ‘‘जिस व्यक्ति ने (रोज़े की हालत में) झूठ बोलना और उस पर अमल करना न छोड़ा, तो ईश्वर को इसकी कुछ आवश्यकता नहीं कि वह (रोज़ा रखकर) अपना खाना- पीना छोड़ दे।’’ – (हदीस : बुख़ारी)

» मेह्फुम-ए-हदीस : ‘‘कितने ही रोज़ा रखने वाले ऐसे हैं, जिन्हें अपने रोज़े से भूख-प्यास के अतिरिक्त कुछ हासिल नहीं होता।’’ – (हदीस : दारमी) – Ummat-e-Nabi

» रोज़ा रखना इंसान की हर चीज़ को पाबन्द (नियमबद्ध) बनाता है।
• आँख का रोज़ा यह है कि जिस चीज़ को देखने से ईश्वर ने मना किया, उसे न देखें।
• कान का रोज़ा यह है कि जिस बात को सुनने से ईश्वर ने मना किया, उसे न सुनें।
• ज़ुबान का रोज़ा यह है कि जिस बात को बोलने से ईश्वर ने मना किया, उसे न बोलें।
• हाथ का रोज़ा यह है कि जिस काम को करने से ईश्वर ने मना किया, उसे न करें।
• पैर का रोज़ा यह है कि जिस तरफ़ जाने से ईश्वर ने मना किया, उधर न जाएं।
• दिमाग़ का रोज़ा यह है कि जिस बात को सोचने से ईश्वर ने मना किया, उसे न सोचें।
• इसी के साथ-साथ यह भी है कि जिन कामों को ईश्वर ने पसन्द किया, उन्हें किया जाए।
• केवल ईश्वर के बताए गए तरीक़े के अनुसार रोज़ा रखना ही इंसान को लाभ पहुँचाता है।
• ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम) कहते हैं—
» मेह्फुम-ए-हदीस : ‘‘इंसान के हर अमल का सवाब (अच्छा बदला) दस गुना से सात सौ गुना तक बढ़ाया जाता है, मगर ईश्वर फ़रमाता है — रोज़ा इससे अलग है, क्योंकि वह मेरे लिए है और मैं ही इसका जितना चाहूँगा बदला दूँगा।’’ – (हदीस : बुख़ारी व मुस्लिम)

» रोज़े का इंसान के दिमाग़ और उसके शरीर दोनों पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ता है।
• रोज़ा एक वार्षिक ट्रेनिंग कोर्स है। जिसका उद्देश्य इंसान की ऐसी विशेष ट्रेनिंग करना है, जिसके बाद वह साल भर ‘स्वयं केन्द्रित जीवन’ के बजाए, ‘ईश्वर-केन्द्रित जीवन’ व्यतीत कर सके।
• रोज़ा इंसान में अनुशासन (Self Discipline) पैदा करता है, ताकि इंसान अपनी सोचों व कामों को सही दिशा दे सके।
• रोज़ा इंसान का स्वयं पर कन्ट्रोल ठीक करता है। इंसान के अन्दर ग़ुस्सा, ख़्वाहिश (इच्छा), लालच, भूख, सेक्स और दूसरी भावनाएं हैं। इनके साथ इंसान का दो में से एक ही रिश्ता हो सकता है: इंसान इन्हें कन्ट्रोल करे, या ये इंसान को कन्ट्रोल करें। पहली सूरत में लाभ और दूसरी में हानि है। रोज़ा इंसान को इन्हें क़ाबू करना सिखाता है। अर्थात् इंसान को जुर्म और पाप से बचा लेता है।
• रोज़ा रखने के बाद इंसान का आत्मविश्वास और आत्मसंयम व संकल्प शक्ति (Will Power) बढ़ जाती है।
• इंसान जान लेता है कि जब वह खाना-पानी जैसी चीज़ों को दिन भर छोड़ सकता है, जिनके बिना जीवन संभव नहीं, तो वह बुरी बातों व आदतों को तो बड़ी आसानी से छोड़ सकता है। जो व्यक्ति भूख बर्दाश्त कर सकता है, वह दूसरी बातें भी बर्दाश्त (सहन) कर सकता है।
• रोज़ा इंसान में सहनशीलता के स्तर (level of Tolerance) को बढ़ाता है।
• रोज़ा इंसान से स्वार्थपरता (Selfishness) और सुस्ती को दूर करता है।
• रोज़ा ईश्वर की नेमतों (खाना-पानी इत्यादि) के महत्व का एहसास दिलाता है।
• रोज़ा इंसान को ईश्वर का सच्चा शुक्रगुज़ार बन्दा बनता है।
• रोज़े के द्वारा इंसान को भूख-प्यास की तकलीफ़ का अनुभव कराया जाता है, ताकि वह भूखों की भूख और प्यासों की प्यास में उनका हमदर्द बन सके।
• रोज़ा इंसान में त्याग के स्तर (Level of Sacrifice) को बढ़ाता है।
• इस तरह हम समझ सकते हैं कि रोज़ा ईश्वर का मार्गदर्शन मिलने पर उसकी बड़ाई प्रकट करने, उसका शुक्र अदा करने और परहेज़गार बनने के अतिरिक्त, न केवल इंसान के दिमाग़ बल्कि उसके शरीर पर भी बहुत अच्छा प्रभाव डालता है।

ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम) के शब्दों में हम कह सकते हैं —
» मेह्फुम-ए-हदीस : ‘‘हर चीज़ पर उसको पाक, पवित्र करने के लिए ज़कात है और (मानसिक व शारीरिक बीमारियों से पाक करने के लिए) शरीर की ज़कात (दान) रोज़ा है।’’ – (हदीस : इब्ने माजा)

» Urdu Words :
हज़रत : आदरणीय व्यक्तित्व के लिए उपाधि सूचक शब्द।
सलल्लाहो अलैहि वसल्लम : हज़रत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम) पर अल्लाह की रहमत व सलामती हो।
हदीस : अल्लाह के अन्तिम सन्देष्टा हज़रत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम) के वचनों, कर्मों और तरीकों (ढंगों) को हदीस कहते हैं।
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» इंसान के बुनियादी सवाल !!! – इस सम्पूर्ण विश्व और इंसान का अल्लाह (ईश्वर) एक है। ईश्वर ने इंसान को बनाया और उसकी सभी आवश्यकताओं को पूरा करने का प्रबंध किया। इंसान को इस ग्रह पर जीवित रहने के लिए लाइफ सपोर्ट सिस्टम दिया।
इंसान को उसके मूल प्रश्नों का उत्तर भी बताया।
– इंसान को क्या कोई बनाने वाला है? अगर है, तो वह क्या चाहता है?
– इंसान को पैदा क्यों किया गया?
– इंसान के जीवन का उद्देश्य क्या है? अगर है, तो उस उद्देश्य को पाने का तरीक़ा क्या है?
– इंसान को आज़ाद पैदा किया गया या मजबूर?
– अच्छी ज़िन्दगी कैसे गुज़ारी जा सकती है?
– मरने के बाद क्या होगा? इत्यादि। यह इंसान के बुनियादी सवाल हैं, जिनका जानना उसके लिए बहुत ज़रुरी है। इंसानों में से ईश्वर ने कुछ इंसानों को चुना, जो पैग़म्बर (ईशदूत) कहलाए। उन्हें अपना सन्देश भेजा, जो सभी इंसानों के लिए मार्गदर्शन है। पहले इंसान व पैग़म्बर हज़रत आदम (अलैहि॰) से लेकर आख़िरी पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम) तक अनेक ईशदूत आए, जो कि हर क़ौम में भेजे गए। सभी ईशदूतों ने लोगों को उन्हीं की भाषा में ईश्वर का सन्देश दिया।
» प्रश्न यह है कि बार-बार अनेक पैग़म्बर क्यों भेजे गए? 
वास्तव में प्राचीनकाल में परिवहन एवं संचार के साधनों की कमी के कारण, एक जगह की ख़बर दूसरी जगह पहुँचना मुश्किल थी।
दूसरे यह कि लोग ईश्वर के सन्देश को बदल देते थे, तब ज़रुरत होती थी कि दोबारा ईश्वर का सन्देश आए।
सभी पैग़म्बरों ने एक ही सन्देश दिया कि ईश्वर एक है, दुनिया इम्तिहान की जगह है और मरने के बाद जिन्दगी है। पहले के सभी पैग़म्बरों का मिशन लोकल था, मगर आख़िरी पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम) का मिशन यूनीवर्सल है। आख़िरी पैग़म्बर पर ईश्वर का जो अन्तिम सन्देश (क़ुरआन) उतरा, उसकी हिफ़ाज़त की ज़िम्मेदारी स्वयं ईश्वर ने ली है। चौदह सौ साल से अधिक हो चुके हैं, मगर आज तक उसे बदला नहीं जा सका। ईश्वर का सन्देश अपनी असल शक्ल (मूलरूप) में मौजूद है, इसलिए अब ज़रूरत नहीं है कि कोई नया ईशदूत आए।
» क़ुरआन का केन्द्रीय विषय इंसान है। क़ुरआन इंसान के बारे में ईश्वर की स्कीम को बताता है।
क़ुरआन बताता है कि इंसान को सदैव के लिए पैदा किया गया है और उसे शाश्वत जीवन दिया गया है। ईश्वर ने इंसान के जीवन को दो भागों में बाँटा है :
१. मौत से पहले का समय, जो अस्थाई है, इंसान के इम्तिहान के लिए है।
२. मौत के बाद का समय, जो स्वर्ग या नरक के रूप में दुनिया में किए गए अच्छे या बुरे कर्मों का बदला मिलने के लिए है। यह कभी न ख़त्म होने वाला स्थाई दौर है। इन दोनों के बीच में मौत एक तबादले (Transition) के रूप में है।
» इंसान की ज़िन्दगी का उद्देश्य –
क़ुरआन बताता है कि दुनिया इंसान के लिए एक परीक्षास्थल है। इंसान की ज़िन्दगी का उद्देश्य ईश्वर की इबादत (उपासना) है। (क़ुरआन, 51:56) इबादत का अर्थ ईश्वर केन्द्रित जीवन (God-centred life) व्यतीत करना है। इबादत एक पार्ट-टाइम नहीं, बल्कि फुल टाइम अमल है, जो पैदाइश से लेकर मौत तक जारी रहता है।
वास्तव में इंसान की पूरी ज़िन्दगी इबादत है, अगर वह ईश्वर की मर्ज़ी के अनुसार व्यतीत हो। ईश्वर की मर्ज़ी के अनुसार जीवन व्यतीत करने का आदी बनाने के लिए, आवश्यक था कि कुछ प्रशिक्षण भी हो, इसलिए नमाज़, रोज़ा (निराहार उपवास), ज़कात और हज को इसी प्रशिक्षण के रूप में रखा गया। इनमें समय की, एनर्जी की और दौलत की क़ुरबानी द्वारा इंसान को आध्यात्मिक उत्थान के लिए और उसे व्यावहारिक जीवन के लिए लाभदायक बनाने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। इस ट्रेनिंग को बार-बार रखा गया, ताकि इंसान को अच्छाई पर स्थिर रखा जा सके, क्योंकि इंसान अन्दर व बाहर से बदलने वाला अस्तित्व रखता है।
ईश्वर सबसे बेहतर जानता है कि कौन-सी चीज़ इंसान के लिए लाभदायक है और कौन-सी हानिकारक। ईश्वर इंसान का भला चाहता है इसलिए उसने हर वह काम
जिसके करने से इंसान स्वयं को हानि पहुँचाता, करना हराम (अवैध) ठहराया और हर उस काम को जिसके न करने से इंसान स्वयं को हानि पहुँचाता, इबादत कहा और उनका करना इंसान के लिए अनिवार्य कर दिया।
ईश्वर का अन्तिम सन्देश क़ुरआन, दुनिया में पहली बार रमज़ान के महीने में अवतरित होना शुरू हुआ। इसीलिए रमज़ान का महीना क़ुरआन का महीना कहलाया। इसे क़ुरआन के मानने वालों के लिए शुक्रगुज़ारी का महीना बना दिया गया और इस पूरे महीने रोज़े रखने अनिवार्य किए गए।
» रोज़ा एक इबादत है। रोज़े को अरबी भाषा में ‘‘सौम’’ कहते हैं। इसका अर्थ ‘‘रुकने और चुप रहने’’ के हैं। क़ुरआन में इसे ‘‘सब्र’’ भी कहा गया है, जिसका अर्थ है ‘स्वयं पर नियंत्रण’ और स्थिरता व जमाव (Stability)।
इस्लाम में रोज़े का मतलब होता है केवल ईश्वर के लिए, भोर से लेकर सूरज डूबने तक खाने-पीने, सभी बुराइयों (और पति-पत्नी का सहवास करने) से स्वयं को रोके रखना। अनिवार्य रोज़े, जो केवल रमज़ान के महीने में रखे जाते हैं और यह हर व्यस्क मुसलमान के लिए अनिवार्य हैं।
क़ुरआन में कहा गया है—
♥ अल-कुरान : ‘‘ऐ ईमान लाने वालो! तुम पर रोज़े अनिवार्य किए गए, जिस प्रकार तुम से पहले के लोगों पर किए गए थे, शायद कि तुम डर रखने वाले और परहेज़गार बन जाओ।’’ –(क़ुरआन, 2:183)
♥ अल-कुरान : रमज़ान का महीना जिसमें क़ुरआन उतारा गया लोगों के मार्गदर्शन के लिए, और मार्गदर्शन और सत्य-असत्य के अन्तर के प्रमाणों के साथ। अतः तुममें जो कोई इस महीने में मौजूद हो, उसे चाहिए कि उसके रोज़े रखे और जो बीमार हो या यात्रा में हो तो दूसरे दिनों से गिनती पूरी कर ले। ईश्वर तुम्हारे साथ आसानी चाहता है, वह तुम्हारे साथ सख़्ती और कठिनाई नहीं चाहता और चाहता है कि तुम संख्या पूरी कर लो और जो सीधा मार्ग तुम्हें दिखाया गया है, उस पर ईश्वर की बड़ाई प्रकट करो और ताकि तुम कृतज्ञ बनो।’’ – (क़ुरआन, 2:185)
रोज़ा एक बहुत महत्वपूर्ण इबादत है। हर क़ौम में, हर पैग़म्बर ने रोज़ा रखने की बात कही। आज भी रोज़ा हर धर्म में किसी न किसी रूप में मौजूद है। क़ुरआन के अनुसार रोज़े का उद्देश्य इंसान में तक़वा या संयम (God Consciousness) पैदा करना है। तक़वा का एक अर्थ है — ‘ईश्वर का डर’ और दूसरा अर्थ है — ‘ज़िन्दगी में हमेशा एहतियात वाला तरीक़ा अपनाना।’
• ईश्वर का डर एक ऐसी बात है जो इंसान को असावधान होने अर्थात् असफल होने से बचा लेता है।
कु़रआन की आयत (Verse) ‘ताकि तुम डर रखने वाले और परहेज़गार बन जाओ’ (2:183), से पता चलता है कि रोज़ा, इंसान में ईश्वर का डर पैदा करता है और उसे परहेज़गार (संयमी) बनाता है। ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया—
» मेह्फुम-ए-हदीस : ‘‘जिस व्यक्ति ने (रोज़े की हालत में) झूठ बोलना और उस पर अमल करना न छोड़ा, तो ईश्वर को इसकी कुछ आवश्यकता नहीं कि वह (रोज़ा रखकर) अपना खाना- पीना छोड़ दे।’’ – (हदीस : बुख़ारी)
» मेह्फुम-ए-हदीस : ‘‘कितने ही रोज़ा रखने वाले ऐसे हैं, जिन्हें अपने रोज़े से भूख-प्यास के अतिरिक्त कुछ हासिल नहीं होता।’’ – (हदीस : दारमी) – @[156344474474186:]
» रोज़ा रखना इंसान की हर चीज़ को पाबन्द (नियमबद्ध) बनाता है। 
• आँख का रोज़ा यह है कि जिस चीज़ को देखने से ईश्वर ने मना किया, उसे न देखें।
• कान का रोज़ा यह है कि जिस बात को सुनने से ईश्वर ने मना किया, उसे न सुनें।
• ज़ुबान का रोज़ा यह है कि जिस बात को बोलने से ईश्वर ने मना किया, उसे न बोलें।
• हाथ का रोज़ा यह है कि जिस काम को करने से ईश्वर ने मना किया, उसे न करें।
• पैर का रोज़ा यह है कि जिस तरफ़ जाने से ईश्वर ने मना किया, उधर न जाएं।
• दिमाग़ का रोज़ा यह है कि जिस बात को सोचने से ईश्वर ने मना किया, उसे न सोचें।
• इसी के साथ-साथ यह भी है कि जिन कामों को ईश्वर ने पसन्द किया, उन्हें किया जाए।
• केवल ईश्वर के बताए गए तरीक़े के अनुसार रोज़ा रखना ही इंसान को लाभ पहुँचाता है।
• ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम) कहते हैं—
» मेह्फुम-ए-हदीस : ‘‘इंसान के हर अमल का सवाब (अच्छा बदला) दस गुना से सात सौ गुना तक बढ़ाया जाता है, मगर ईश्वर फ़रमाता है — रोज़ा इससे अलग है, क्योंकि वह मेरे लिए है और मैं ही इसका जितना चाहूँगा बदला दूँगा।’’ – (हदीस : बुख़ारी व मुस्लिम)
» रोज़े का इंसान के दिमाग़ और उसके शरीर दोनों पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ता है।
• रोज़ा एक वार्षिक ट्रेनिंग कोर्स है। जिसका उद्देश्य इंसान की ऐसी विशेष ट्रेनिंग करना है, जिसके बाद वह साल भर ‘स्वयं केन्द्रित जीवन’ के बजाए, ‘ईश्वर-केन्द्रित जीवन’ व्यतीत कर सके।
• रोज़ा इंसान में अनुशासन (Self Discipline) पैदा करता है, ताकि इंसान अपनी सोचों व कामों को सही दिशा दे सके।
• रोज़ा इंसान का स्वयं पर कन्ट्रोल ठीक करता है। इंसान के अन्दर ग़ुस्सा, ख़्वाहिश (इच्छा), लालच, भूख, सेक्स और दूसरी भावनाएं हैं। इनके साथ इंसान का दो में से एक ही रिश्ता हो सकता है: इंसान इन्हें कन्ट्रोल करे, या ये इंसान को कन्ट्रोल करें। पहली सूरत में लाभ और दूसरी में हानि है। रोज़ा इंसान को इन्हें क़ाबू करना सिखाता है। अर्थात् इंसान को जुर्म और पाप से बचा लेता है।
• रोज़ा रखने के बाद इंसान का आत्मविश्वास और आत्मसंयम व संकल्प शक्ति (Will Power) बढ़ जाती है।
• इंसान जान लेता है कि जब वह खाना-पानी जैसी चीज़ों को दिन भर छोड़ सकता है, जिनके बिना जीवन संभव नहीं, तो वह बुरी बातों व आदतों को तो बड़ी आसानी से छोड़ सकता है। जो व्यक्ति भूख बर्दाश्त कर सकता है, वह दूसरी बातें भी बर्दाश्त (सहन) कर सकता है।
• रोज़ा इंसान में सहनशीलता के स्तर (level of Tolerance) को बढ़ाता है।
• रोज़ा इंसान से स्वार्थपरता (Selfishness) और सुस्ती को दूर करता है।
• रोज़ा ईश्वर की नेमतों (खाना-पानी इत्यादि) के महत्व का एहसास दिलाता है।
• रोज़ा इंसान को ईश्वर का सच्चा शुक्रगुज़ार बन्दा बनता है।
• रोज़े के द्वारा इंसान को भूख-प्यास की तकलीफ़ का अनुभव कराया जाता है, ताकि वह भूखों की भूख और प्यासों की प्यास में उनका हमदर्द बन सके।
• रोज़ा इंसान में त्याग के स्तर (Level of Sacrifice) को बढ़ाता है।
• इस तरह हम समझ सकते हैं कि रोज़ा ईश्वर का मार्गदर्शन मिलने पर उसकी बड़ाई प्रकट करने, उसका शुक्र अदा करने और परहेज़गार बनने के अतिरिक्त, न केवल इंसान के दिमाग़ बल्कि उसके शरीर पर भी बहुत अच्छा प्रभाव डालता है।
ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम) के शब्दों में हम कह सकते हैं —
» इंसान के बुनियादी सवाल !!! – इस सम्पूर्ण विश्व और इंसान का अल्लाह (ईश्वर) एक है। ईश्वर ने इंसान को बनाया और उसकी सभी आवश्यकताओं को पूरा करने का प्रबंध किया। इंसान को इस ग्रह पर जीवित रहने के लिए लाइफ सपोर्ट सिस्टम दिया।
इंसान को उसके मूल प्रश्नों का उत्तर भी बताया।
– इंसान को क्या कोई बनाने वाला है? अगर है, तो वह क्या चाहता है?
– इंसान को पैदा क्यों किया गया?
– इंसान के जीवन का उद्देश्य क्या है? अगर है, तो उस उद्देश्य को पाने का तरीक़ा क्या है?
– इंसान को आज़ाद पैदा किया गया या मजबूर?
– अच्छी ज़िन्दगी कैसे गुज़ारी जा सकती है?
– मरने के बाद क्या होगा? इत्यादि। यह इंसान के बुनियादी सवाल हैं, जिनका जानना उसके लिए बहुत ज़रुरी है। इंसानों में से ईश्वर ने कुछ इंसानों को चुना, जो पैग़म्बर (ईशदूत) कहलाए। उन्हें अपना सन्देश भेजा, जो सभी इंसानों के लिए मार्गदर्शन है। पहले इंसान व पैग़म्बर हज़रत आदम (अलैहि॰) से लेकर आख़िरी पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम) तक अनेक ईशदूत आए, जो कि हर क़ौम में भेजे गए। सभी ईशदूतों ने लोगों को उन्हीं की भाषा में ईश्वर का सन्देश दिया।
» प्रश्न यह है कि बार-बार अनेक पैग़म्बर क्यों भेजे गए? 
वास्तव में प्राचीनकाल में परिवहन एवं संचार के साधनों की कमी के कारण, एक जगह की ख़बर दूसरी जगह पहुँचना मुश्किल थी।
दूसरे यह कि लोग ईश्वर के सन्देश को बदल देते थे, तब ज़रुरत होती थी कि दोबारा ईश्वर का सन्देश आए।
सभी पैग़म्बरों ने एक ही सन्देश दिया कि ईश्वर एक है, दुनिया इम्तिहान की जगह है और मरने के बाद जिन्दगी है। पहले के सभी पैग़म्बरों का मिशन लोकल था, मगर आख़िरी पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम) का मिशन यूनीवर्सल है। आख़िरी पैग़म्बर पर ईश्वर का जो अन्तिम सन्देश (क़ुरआन) उतरा, उसकी हिफ़ाज़त की ज़िम्मेदारी स्वयं ईश्वर ने ली है। चौदह सौ साल से अधिक हो चुके हैं, मगर आज तक उसे बदला नहीं जा सका। ईश्वर का सन्देश अपनी असल शक्ल (मूलरूप) में मौजूद है, इसलिए अब ज़रूरत नहीं है कि कोई नया ईशदूत आए।
» क़ुरआन का केन्द्रीय विषय इंसान है। क़ुरआन इंसान के बारे में ईश्वर की स्कीम को बताता है।
क़ुरआन बताता है कि इंसान को सदैव के लिए पैदा किया गया है और उसे शाश्वत जीवन दिया गया है। ईश्वर ने इंसान के जीवन को दो भागों में बाँटा है :
१. मौत से पहले का समय, जो अस्थाई है, इंसान के इम्तिहान के लिए है।
२. मौत के बाद का समय, जो स्वर्ग या नरक के रूप में दुनिया में किए गए अच्छे या बुरे कर्मों का बदला मिलने के लिए है। यह कभी न ख़त्म होने वाला स्थाई दौर है। इन दोनों के बीच में मौत एक तबादले (Transition) के रूप में है।
» इंसान की ज़िन्दगी का उद्देश्य –
क़ुरआन बताता है कि दुनिया इंसान के लिए एक परीक्षास्थल है। इंसान की ज़िन्दगी का उद्देश्य ईश्वर की इबादत (उपासना) है। (क़ुरआन, 51:56) इबादत का अर्थ ईश्वर केन्द्रित जीवन (God-centred life) व्यतीत करना है। इबादत एक पार्ट-टाइम नहीं, बल्कि फुल टाइम अमल है, जो पैदाइश से लेकर मौत तक जारी रहता है।
वास्तव में इंसान की पूरी ज़िन्दगी इबादत है, अगर वह ईश्वर की मर्ज़ी के अनुसार व्यतीत हो। ईश्वर की मर्ज़ी के अनुसार जीवन व्यतीत करने का आदी बनाने के लिए, आवश्यक था कि कुछ प्रशिक्षण भी हो, इसलिए नमाज़, रोज़ा (निराहार उपवास), ज़कात और हज को इसी प्रशिक्षण के रूप में रखा गया। इनमें समय की, एनर्जी की और दौलत की क़ुरबानी द्वारा इंसान को आध्यात्मिक उत्थान के लिए और उसे व्यावहारिक जीवन के लिए लाभदायक बनाने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। इस ट्रेनिंग को बार-बार रखा गया, ताकि इंसान को अच्छाई पर स्थिर रखा जा सके, क्योंकि इंसान अन्दर व बाहर से बदलने वाला अस्तित्व रखता है।
ईश्वर सबसे बेहतर जानता है कि कौन-सी चीज़ इंसान के लिए लाभदायक है और कौन-सी हानिकारक। ईश्वर इंसान का भला चाहता है इसलिए उसने हर वह काम
जिसके करने से इंसान स्वयं को हानि पहुँचाता, करना हराम (अवैध) ठहराया और हर उस काम को जिसके न करने से इंसान स्वयं को हानि पहुँचाता, इबादत कहा और उनका करना इंसान के लिए अनिवार्य कर दिया।
ईश्वर का अन्तिम सन्देश क़ुरआन, दुनिया में पहली बार रमज़ान के महीने में अवतरित होना शुरू हुआ। इसीलिए रमज़ान का महीना क़ुरआन का महीना कहलाया। इसे क़ुरआन के मानने वालों के लिए शुक्रगुज़ारी का महीना बना दिया गया और इस पूरे महीने रोज़े रखने अनिवार्य किए गए।
» रोज़ा एक इबादत है। रोज़े को अरबी भाषा में ‘‘सौम’’ कहते हैं। इसका अर्थ ‘‘रुकने और चुप रहने’’ के हैं। क़ुरआन में इसे ‘‘सब्र’’ भी कहा गया है, जिसका अर्थ है ‘स्वयं पर नियंत्रण’ और स्थिरता व जमाव (Stability)।
इस्लाम में रोज़े का मतलब होता है केवल ईश्वर के लिए, भोर से लेकर सूरज डूबने तक खाने-पीने, सभी बुराइयों (और पति-पत्नी का सहवास करने) से स्वयं को रोके रखना। अनिवार्य रोज़े, जो केवल रमज़ान के महीने में रखे जाते हैं और यह हर व्यस्क मुसलमान के लिए अनिवार्य हैं।
क़ुरआन में कहा गया है—
♥ अल-कुरान : ‘‘ऐ ईमान लाने वालो! तुम पर रोज़े अनिवार्य किए गए, जिस प्रकार तुम से पहले के लोगों पर किए गए थे, शायद कि तुम डर रखने वाले और परहेज़गार बन जाओ।’’ –(क़ुरआन, 2:183)
♥ अल-कुरान : रमज़ान का महीना जिसमें क़ुरआन उतारा गया लोगों के मार्गदर्शन के लिए, और मार्गदर्शन और सत्य-असत्य के अन्तर के प्रमाणों के साथ। अतः तुममें जो कोई इस महीने में मौजूद हो, उसे चाहिए कि उसके रोज़े रखे और जो बीमार हो या यात्रा में हो तो दूसरे दिनों से गिनती पूरी कर ले। ईश्वर तुम्हारे साथ आसानी चाहता है, वह तुम्हारे साथ सख़्ती और कठिनाई नहीं चाहता और चाहता है कि तुम संख्या पूरी कर लो और जो सीधा मार्ग तुम्हें दिखाया गया है, उस पर ईश्वर की बड़ाई प्रकट करो और ताकि तुम कृतज्ञ बनो।’’ – (क़ुरआन, 2:185)
रोज़ा एक बहुत महत्वपूर्ण इबादत है। हर क़ौम में, हर पैग़म्बर ने रोज़ा रखने की बात कही। आज भी रोज़ा हर धर्म में किसी न किसी रूप में मौजूद है। क़ुरआन के अनुसार रोज़े का उद्देश्य इंसान में तक़वा या संयम (God Consciousness) पैदा करना है। तक़वा का एक अर्थ है — ‘ईश्वर का डर’ और दूसरा अर्थ है — ‘ज़िन्दगी में हमेशा एहतियात वाला तरीक़ा अपनाना।’
• ईश्वर का डर एक ऐसी बात है जो इंसान को असावधान होने अर्थात् असफल होने से बचा लेता है।
कु़रआन की आयत (Verse) ‘ताकि तुम डर रखने वाले और परहेज़गार बन जाओ’ (2:183), से पता चलता है कि रोज़ा, इंसान में ईश्वर का डर पैदा करता है और उसे परहेज़गार (संयमी) बनाता है। ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया—
» मेह्फुम-ए-हदीस : ‘‘जिस व्यक्ति ने (रोज़े की हालत में) झूठ बोलना और उस पर अमल करना न छोड़ा, तो ईश्वर को इसकी कुछ आवश्यकता नहीं कि वह (रोज़ा रखकर) अपना खाना- पीना छोड़ दे।’’ – (हदीस : बुख़ारी)
» मेह्फुम-ए-हदीस : ‘‘कितने ही रोज़ा रखने वाले ऐसे हैं, जिन्हें अपने रोज़े से भूख-प्यास के अतिरिक्त कुछ हासिल नहीं होता।’’ – (हदीस : दारमी) – @[156344474474186:]
» रोज़ा रखना इंसान की हर चीज़ को पाबन्द (नियमबद्ध) बनाता है। 
• आँख का रोज़ा यह है कि जिस चीज़ को देखने से ईश्वर ने मना किया, उसे न देखें।
• कान का रोज़ा यह है कि जिस बात को सुनने से ईश्वर ने मना किया, उसे न सुनें।
• ज़ुबान का रोज़ा यह है कि जिस बात को बोलने से ईश्वर ने मना किया, उसे न बोलें।
• हाथ का रोज़ा यह है कि जिस काम को करने से ईश्वर ने मना किया, उसे न करें।
• पैर का रोज़ा यह है कि जिस तरफ़ जाने से ईश्वर ने मना किया, उधर न जाएं।
• दिमाग़ का रोज़ा यह है कि जिस बात को सोचने से ईश्वर ने मना किया, उसे न सोचें।
• इसी के साथ-साथ यह भी है कि जिन कामों को ईश्वर ने पसन्द किया, उन्हें किया जाए।
• केवल ईश्वर के बताए गए तरीक़े के अनुसार रोज़ा रखना ही इंसान को लाभ पहुँचाता है।
• ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम) कहते हैं—
» मेह्फुम-ए-हदीस : ‘‘इंसान के हर अमल का सवाब (अच्छा बदला) दस गुना से सात सौ गुना तक बढ़ाया जाता है, मगर ईश्वर फ़रमाता है — रोज़ा इससे अलग है, क्योंकि वह मेरे लिए है और मैं ही इसका जितना चाहूँगा बदला दूँगा।’’ – (हदीस : बुख़ारी व मुस्लिम)
» रोज़े का इंसान के दिमाग़ और उसके शरीर दोनों पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ता है।
• रोज़ा एक वार्षिक ट्रेनिंग कोर्स है। जिसका उद्देश्य इंसान की ऐसी विशेष ट्रेनिंग करना है, जिसके बाद वह साल भर ‘स्वयं केन्द्रित जीवन’ के बजाए, ‘ईश्वर-केन्द्रित जीवन’ व्यतीत कर सके।
• रोज़ा इंसान में अनुशासन (Self Discipline) पैदा करता है, ताकि इंसान अपनी सोचों व कामों को सही दिशा दे सके।
• रोज़ा इंसान का स्वयं पर कन्ट्रोल ठीक करता है। इंसान के अन्दर ग़ुस्सा, ख़्वाहिश (इच्छा), लालच, भूख, सेक्स और दूसरी भावनाएं हैं। इनके साथ इंसान का दो में से एक ही रिश्ता हो सकता है: इंसान इन्हें कन्ट्रोल करे, या ये इंसान को कन्ट्रोल करें। पहली सूरत में लाभ और दूसरी में हानि है। रोज़ा इंसान को इन्हें क़ाबू करना सिखाता है। अर्थात् इंसान को जुर्म और पाप से बचा लेता है।
• रोज़ा रखने के बाद इंसान का आत्मविश्वास और आत्मसंयम व संकल्प शक्ति (Will Power) बढ़ जाती है।
• इंसान जान लेता है कि जब वह खाना-पानी जैसी चीज़ों को दिन भर छोड़ सकता है, जिनके बिना जीवन संभव नहीं, तो वह बुरी बातों व आदतों को तो बड़ी आसानी से छोड़ सकता है। जो व्यक्ति भूख बर्दाश्त कर सकता है, वह दूसरी बातें भी बर्दाश्त (सहन) कर सकता है।
• रोज़ा इंसान में सहनशीलता के स्तर (level of Tolerance) को बढ़ाता है।
• रोज़ा इंसान से स्वार्थपरता (Selfishness) और सुस्ती को दूर करता है।
• रोज़ा ईश्वर की नेमतों (खाना-पानी इत्यादि) के महत्व का एहसास दिलाता है।
• रोज़ा इंसान को ईश्वर का सच्चा शुक्रगुज़ार बन्दा बनता है।
• रोज़े के द्वारा इंसान को भूख-प्यास की तकलीफ़ का अनुभव कराया जाता है, ताकि वह भूखों की भूख और प्यासों की प्यास में उनका हमदर्द बन सके।
• रोज़ा इंसान में त्याग के स्तर (Level of Sacrifice) को बढ़ाता है।
• इस तरह हम समझ सकते हैं कि रोज़ा ईश्वर का मार्गदर्शन मिलने पर उसकी बड़ाई प्रकट करने, उसका शुक्र अदा करने और परहेज़गार बनने के अतिरिक्त, न केवल इंसान के दिमाग़ बल्कि उसके शरीर पर भी बहुत अच्छा प्रभाव डालता है।
ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम) के शब्दों में हम कह सकते हैं —
» मेह्फुम-ए-हदीस : ‘‘हर चीज़ पर उसको पाक, पवित्र करने के लिए ज़कात है और (मानसिक व शारीरिक बीमारियों से पाक करने के लिए) शरीर की ज़कात (दान) रोज़ा है।’’ – (हदीस : इब्ने माजा)