Thursday 5 May 2016

शबे-ऐ-मेराज क्या है?

मेराज की रात अल्लाह तआला ने अपने महबूब नबी (स०अ०व्०) को आलमे दुनिया, आलमे बरजख, आलमे आखिरत और आलमे मलकूत की सैर कराते हुए अपनी बारगाह में बुलाया और इतना करीब किया और राज व नियाज की ऐसी बाते की कि तमाम अव्वलीन व आखिरीन फरिश्ते व जिन्न बल्कि अम्बिया व रसूल सब रश्क करते रह गए और तजल्लियाते इलाही की ऐसी दीद हुई कि उससे पहले किसी को हुई थी न इसके बाद किसी को होगी।

तमाम मखलूकात में यह एजाज सिर्फ आप (स०अ०व०) को हासिल हुआ है। एजाज के हर मौके पर रसूल (स०अ०व०) ने अपनी प्यारी उम्मत को याद रखा, राज व नियाज की बातों के बीच उम्मत का भी तजकिरा आया होगा। आप (स०अ०व०) ने तजल्लियाते इलाही का दीदार किया। अल्लाह तआला ने अपने महबूब को दरबारे तजल्ली में बुलाया ही था नवाजिश के लिए, बुलाकर हर ख्वाहिश पूरी की, उम्मत के लिए भी मेराज का तोहफा पेश किया।

यानी नमाज से नवाजा और फरमाया कि यही आप(स०अ०व०) की उम्मत की मेराज है। अव्वलन पचास वक्त की नमाजे फर्ज थीं फिर बाद में पांच नमाजे रह गईं। यह महज फजल खुदावंदी है कि हम नमाज पंजगाना की अदाएगी पर पचास वक्त की नमाजों का सबाब पाते हैं।

इस्लाम में नमाज की अहमियत और वकअत के लिए इतना ही काफी है कि वह इस्लाम के पांच सुतूनों में से एक अहम सुतून है। नबी करीम (स०अ०व०) ने फरमाया- कयामत में सबसे पहले नमाज के बारे में पूछा जाएगा। इरशादे नबवी है- यानी कयामत के दिन बंदे से उनके आमाल में सबसे पहले जिस चीज का हिसाब लिया जाएगा वह नमाज होगी।

यह अल्लाह और उसके नेक बंदे के बीच कुर्बत का सबसे बेहतरीन जरिया है। नबी करीम (स०अ०व०) ने फरमाया नमाजी जब नमाज पढ़ता है तो अपने रब से सरगोशी करता है, नमाज मोमिन की मेराज है आंखों की ठंडक, दिल की रौशनी, दिमाग की आसूदगी व राहत नमाज से हासिल होती है।

नमाज एत्तेहाद व इत्तेफाक और इताअत व फरमाबरदारी का अमली नमूना है। अरबी व अजमी, अमीर व गरीब, गुलाम व आका, शाह व भिखारी, ओहदेदार व बेओहदेदार, हाकिम व महकूम सब एक ही सफ मे खड़े हो जाते हैं, न कोई बंदा है और न कोई बंदा नवाज। नमाज हर बालिग पर लाजिम है।

इससे किसी को छुटकारा नहीं। सेहतमंद हो या बीमार, आलिम हो या जाहिल, शाह हो या भिखारी, साहबे दौलत हो या मुफलिस, हिन्दी हो सिंधी, अरबी हो या अजमी, मशरिकी हो या मगरिबी हर मुसलमान पर नमाज पंजगाना फर्ज है। सुकून व इत्मीनान की हालत में हो या जंग व जिदाल का खौफनाक और हौलनाक मंजर जिसमें तीरों की बारिश हो रही हो नेजो और तलवारों की बिजलियां चमक रही हों, लेकिन नमाज की सफ यहां भी कायम।

पांचो नमाजों को अपने अपने वक्तों में अदा करने से हर काम वक्त मुकर्ररा पर अंजाम देने की आदत हो जाती है और यह दोनों जहां में कामयाबी की निशानी है। पांचों नमाजों में जुमा और ईदैन में लोगों का इज्तिमा होता है जिसकी वजह से आपसी मोहब्बत व ताल्लुक एक दूसरे के हालात से वाकफियत और तमाम इज्तिमाई काम की अंजामदेही में आसानी हो जाती है।

अमीर व फकीर एक जगह जमा होते हैं और अमीरों में गरीबों, मोहताजों, यतीमों और बेवाओं पर तरस खाने और उनकी मदद करने का जज्बा पैदा होता है। नमाज हर वक्त अल्लाह की याद, आखिरत की फिक्र व तैयारी, हक पर कायम रहने, बातिल को मिटाने का फितरी जज्बा मोमिन में पैदा करती है।

यह गुनाहों और नाफरमानियों से बाज रखती है। अल्लाह तआला ने परेशानी की घड़ी में सब्र और नमाज के जरिए मदद चाहने की तलकीन की है।

बेशक नमाज के अन्दर यह बरकात व फैजानात मौजूद है। आज भी अगर कोई पूरे खुशूअ व खुजूअ के साथ नमाज की पाबंदी करे तो उसे इसी दुनिया में मेराज और तजल्लियाते इलाही नसीब हो जाए और अगर पूरी उम्मत को नमाज कायम करने की तौफीक मिल जाए तो उम्मत के अन्दर मौजूद तमाम रजायल दूर हो जाएं और उसको अपनी खोई हुई अजमत मिल जाए।

मेराज मुसलमानों के लिए एक अजीम इनाम भी है। मगर आज हम शबे मेराज में क्या करते हैं? अगर उनकी तफसीलात बयान की जाए तो सिवाए अफसोस के और कुछ नहीं होगा। हम शबे मेराज को सैर व तफरीह की रात समझते हैं। इसे कव्वाली, गजल और गपशप तक महदूद किए हुए हैं।

इतनी अहम व अजीम रात को हम यूं ही गुजार देते हैं। हमने बहुत से ऐसे लोगों को भी देखा है जिनका पूरा घर पांच वक्त की नमाज तो नहीं पढ़ता मगर शबे मेराज में सब नहा धोकर साफ कपड़े पहन कर रात भर तसबीह व नवाफिल पढ़ते रहते हैं। मुमकिन है वह इस रात की अहमियत को न समझते हों मगर उलेमा और दानिश्वराने कौम इस रात की अहमियत और तकाजे क्यों नहीं बताते? दरअसल शबे मेराज को हमने एक त्योहार समझ रखा है।

हम नबी करीम (स०अ०व०) के तरीके को नहीं समझते। सहाबा और बुर्जुगाने दीन के अमल को नहीं अपनाते। इस रिवायती अंदाज में इतनी अहम रात को त्योहार की तरह गुजार देते हैं यह मुसलमानों का तरीका नहीं। पांच वक्त की नमाज का अजीम तोहफा शबे मेराज में अल्लाह तआला ने अपने महबूब हजरत मोहम्मद (स०अ०व०) को दिया। क्या हम उस तोहफे को समझ सके। नमाज मोमिन की मेराज है, नमाज दीन का सुतून है क्या यह सब हुजूर का फरमान नहीं? फिर हम इसे क्यों नहीं मानते उस पर अमल क्यों नहीं करते।

तमाम मसायल का हल नमाज है, तमाम तरह की परेशानियों का इलाज नमाज है जिस घर के लोग नमाजी हैं उस घर में अल्लाह की रहमत व बरकत नाजिल होती है, आने वाली बलाएं टल जाती हैं, ईमान सलामत रहता है। हम नमाज नहीं पढ़ते हैं तो शबे मेराज मनाने का हक नहीं है। कितने अफसोस की बात है कि नमाज छोड़कर हम खुद दीन की बुनियादों को खोखला कर रहे हैं।

अल्लाह ने कुरआन में बार-बार नमाज कायम करने का हुक्म दिया है फिर भी हम नहीं पढ़ते। गोया अल्लाह और कुरआन के एहकाम को झुटलाते हैं फिर हम कैसे मुसलमान है? हम अगर वाकई मुसलमान बन जाएं, अल्लाह व उसके रसूल के एहकामात पर सख्ती से अमल करें तो हमारी जिंदगी में एक नया इंकलाब आएगा।

मगर अफसोस कि शैतान हमारे दिल व दिमाग पर इस तरह हावी है कि हम सब कुछ समझकर भी महसूस नहीं करते। हमारा एहसास मर चुका है, दिल सयाह ( काला) हो चुका है तो अच्छी बातें कहां से हमारे दिल व दिमाग में आएंगी। नवाफिल पढ़ रहे हैं तस्वीह पढ़ रहे हैं क्या यह अमल काबिले कुबूल होगा। अल्लाह का उसूल और उसका कानून बरहक है।

उसकी खिलाफवर्जी करके दिन रात अल्लाह-अल्लाह करते रहे कुछ नहीं होता जो तरीका बता दिया गया जिस तरीके पर चलकर नबी करीम (स०अ०व०) ने दिखा दिया है जब तक उसकी तकलीद नहीं करेंगे सब बेकार है। मुसलमानों को शोबाजी और दिखावे की दुनिया से अलग होकर अमल की दुनिया में आने की जरूरत है।

तभी दुनिया हमारे कदमों में होगी वरना हम दुनिया के कदमों में रहेंगे। जरूरत इस बात की है कि शबे मेराज के फलसफे को समझा जाए और फिर नमाज को अव्वलियत देकर पाबंदी की जाए। आज मुसलमान अपने मसायल के लिए दर-दर भटक रहा है कोई मोहताजगी की हालत में है कोई परेशानी की हालत में है।

किसी के घर बीमारी है किसी के घर आपसी झगड़ा है। इन तमाम मसायल का हल नमाज में है। मस्जिद जो अल्लाह का घर है वहां हम नहीं जाते गली मोहल्लों में घंटों एक दूसरे के साथ गपशप और दुनियावी बातों में मसरूफ रहेंगे मगर दस पन्द्रह मिनट का वक्त हमारे पास नमाज पढ़ने का नहीं है। अगर हम नमाज से गफलत करते रहे तो हमारा वजूद व शिनाख्त तक कुचल दी जाएगी।
शबे मेराज का तकाजा नमाज है।

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