Friday 10 June 2016

Roza Kya Aur Kyo


          जानिए – रोज़ा क्या और क्यों ?
» इंसान के बुनियादी सवाल !!! – इस सम्पूर्ण विश्व और इंसान का अल्लाह (ईश्वर) एक है। ईश्वर ने इंसान को बनाया और उसकी सभी आवश्यकताओं को पूरा करने का प्रबंध किया। इंसान को इस ग्रह पर जीवित रहने के लिए लाइफ स hiपोर्ट सिस्टम दिया।

इंसान को उसके मूल प्रश्नों का उत्तर भी बताया।
– इंसान को क्या कोई बनाने वाला है? अगर है, तो वह क्या चाहता है?
– इंसान को पैदा क्यों किया गया?
– इंसान के जीवन का उद्देश्य क्या है? अगर है, तो उस उद्देश्य को पाने का तरीक़ा क्या है?
– इंसान को आज़ाद पैदा किया गया या मजबूर?
– अच्छी ज़िन्दगी कैसे गुज़ारी जा सकती है?
– मरने के बाद क्या होगा? इत्यादि। यह इंसान के बुनियादी सवाल हैं, जिनका जानना उसके लिए बहुत ज़रुरी है। इंसानों में से ईश्वर ने कुछ इंसानों को चुना, जो पैग़म्बर (ईशदूत) कहलाए। उन्हें अपना सन्देश भेजा, जो सभी इंसानों के लिए मार्गदर्शन है। पहले इंसान व पैग़म्बर हज़रत आदम (अलैहि॰) से लेकर आख़िरी पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम) तक अनेक ईशदूत आए, जो कि हर क़ौम में भेजे गए। सभी ईशदूतों ने लोगों को उन्हीं की भाषा में ईश्वर का सन्देश दिया।

» प्रश्न यह है कि बार-बार अनेक पैग़म्बर क्यों भेजे गए?
वास्तव में प्राचीनकाल में परिवहन एवं संचार के साधनों की कमी के कारण, एक जगह की ख़बर दूसरी जगह पहुँचना मुश्किल थी।
दूसरे यह कि लोग ईश्वर के सन्देश को बदल देते थे, तब ज़रुरत होती थी कि दोबारा ईश्वर का सन्देश आए।
सभी पैग़म्बरों ने एक ही सन्देश दिया कि ईश्वर एक है, दुनिया इम्तिहान की जगह है और मरने के बाद जिन्दगी है।  आख़िरी पैग़म्बर पर ईश्वर का जो अन्तिम सन्देश (क़ुरआन) उतरा, उसकी हिफ़ाज़त की ज़िम्मेदारी स्वयं ईश्वर ने ली है। चौदह सौ साल से अधिक हो चुके हैं, मगर आज तक उसे बदला नहीं जा सका। ईश्वर का सन्देश अपनी असल शक्ल (मूलरूप) में मौजूद है, इसलिए अब ज़रूरत नहीं है कि कोई नया ईशदूत आए।

» क़ुरआन का केन्द्रीय विषय इंसान है। क़ुरआन इंसान के बारे में ईश्वर की स्कीम को बताता है।
क़ुरआन बताता है कि इंसान को सदैव के लिए पैदा किया गया है और उसे शाश्वत जीवन दिया गया है। ईश्वर ने इंसान के जीवन को दो भागों में बाँटा है :
१. मौत से पहले का समय, जो अस्थाई है, इंसान के इम्तिहान के लिए है।
२. मौत के बाद का समय, जो स्वर्ग या नरक के रूप में दुनिया में किए गए अच्छे या बुरे कर्मों का बदला मिलने के लिए है। यह कभी न ख़त्म होने वाला स्थाई दौर है। इन दोनों के बीच में मौत एक तबादले (Transition) के रूप में है।

» इंसान की ज़िन्दगी का उद्देश्य –
क़ुरआन बताता है कि दुनिया इंसान के लिए एक परीक्षास्थल है। इंसान की ज़िन्दगी का उद्देश्य ईश्वर की इबादत (उपासना) है। (क़ुरआन, 51:56) इबादत का अर्थ ईश्वर केन्द्रित जीवन (God-centred life) व्यतीत करना है। इबादत एक पार्ट-टाइम नहीं, बल्कि फुल टाइम अमल है, जो पैदाइश से लेकर मौत तक जारी रहता है।
वास्तव में इंसान की पूरी ज़िन्दगी इबादत है, अगर वह ईश्वर की मर्ज़ी के अनुसार व्यतीत हो। ईश्वर की मर्ज़ी के अनुसार जीवन व्यतीत करने का आदी बनाने के लिए, आवश्यक था कि कुछ प्रशिक्षण भी हो, इसलिए नमाज़, रोज़ा (निराहार उपवास), ज़कात और हज को इसी प्रशिक्षण के रूप में रखा गया। इनमें समय की, एनर्जी की और दौलत की क़ुरबानी द्वारा इंसान को आध्यात्मिक उत्थान के लिए और उसे व्यावहारिक जीवन के लिए लाभदायक बनाने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। इस ट्रेनिंग को बार-बार रखा गया, ताकि इंसान को अच्छाई पर स्थिर रखा जा सके, क्योंकि इंसान अन्दर व बाहर से बदलने वाला अस्तित्व रखता है।
ईश्वर सबसे बेहतर जानता है कि कौन-सी चीज़ इंसान के लिए लाभदायक है और कौन-सी हानिकारक। ईश्वर इंसान का भला चाहता है इसलिए उसने हर वह काम
जिसके करने से इंसान स्वयं को हानि पहुँचाता, करना हराम (अवैध) ठहराया और हर उस काम को जिसके न करने से इंसान स्वयं को हानि पहुँचाता, इबादत कहा और उनका करना इंसान के लिए अनिवार्य कर दिया।
ईश्वर का अन्तिम सन्देश क़ुरआन, दुनिया में पहली बार रमज़ान के महीने में अवतरित होना शुरू हुआ। इसीलिए रमज़ान का महीना क़ुरआन का महीना कहलाया। इसे क़ुरआन के मानने वालों के लिए शुक्रगुज़ारी का महीना बना दिया गया और इस पूरे महीने रोज़े रखने अनिवार्य किए गए।

» रोज़ा एक इबादत है। रोज़े को अरबी भाषा में ‘‘सौम’’ कहते हैं। इसका अर्थ ‘‘रुकने और चुप रहने’’ के हैं। क़ुरआन में इसे ‘‘सब्र’’ भी कहा गया है, जिसका अर्थ है ‘स्वयं पर नियंत्रण’ और स्थिरता व जमाव (Stability)।
इस्लाम में रोज़े का मतलब होता है केवल ईश्वर के लिए, भोर से लेकर सूरज डूबने तक खाने-पीने, सभी बुराइयों (और पति-पत्नी का सहवास करने) से स्वयं को रोके रखना। अनिवार्य रोज़े, जो केवल रमज़ान के महीने में रखे जाते हैं और यह हर व्यस्क मुसलमान के लिए अनिवार्य हैं।
क़ुरआन में कहा गया है—
♥ अल-कुरान : ‘‘ऐ ईमान लाने वालो! तुम पर रोज़े अनिवार्य किए गए, जिस प्रकार तुम से पहले के लोगों पर किए गए थे, शायद कि तुम डर रखने वाले और परहेज़गार बन जाओ।’’ – (क़ुरआन, 2:183)

♥ अल-कुरान : रमज़ान का महीना जिसमें क़ुरआन उतारा गया लोगों के मार्गदर्शन के लिए, और मार्गदर्शन और सत्य-असत्य के अन्तर के प्रमाणों के साथ। अतः तुममें जो कोई इस महीने में मौजूद हो, उसे चाहिए कि उसके रोज़े रखे और जो बीमार हो या यात्रा में हो तो दूसरे दिनों से गिनती पूरी कर ले। ईश्वर तुम्हारे साथ आसानी चाहता है, वह तुम्हारे साथ सख़्ती और कठिनाई नहीं चाहता और चाहता है कि तुम संख्या पूरी कर लो और जो सीधा मार्ग तुम्हें दिखाया गया है, उस पर ईश्वर की बड़ाई प्रकट करो और ताकि तुम कृतज्ञ बनो।’’ – (क़ुरआन, 2:185)

रोज़ा एक बहुत महत्वपूर्ण इबादत है। हर क़ौम में, हर पैग़म्बर ने रोज़ा रखने की बात कही।। क़ुरआन के अनुसार रोज़े का उद्देश्य इंसान में तक़वा या संयम (God Consciousness) पैदा करना है। तक़वा का एक अर्थ है — ‘ईश्वर का डर’ और दूसरा अर्थ है — ‘ज़िन्दगी में हमेशा एहतियात वाला तरीक़ा अपनाना।’

• ईश्वर का डर एक ऐसी बात है जो इंसान को असावधान होने अर्थात् असफल होने से बचा लेता है।
कु़रआन की आयत (Verse) ‘ताकि तुम डर रखने वाले और परहेज़गार बन जाओ’ (2:183), से पता चलता है कि रोज़ा, इंसान में ईश्वर का डर पैदा करता है और उसे परहेज़गार (संयमी) बनाता है। ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया—
» मेह्फुम-ए-हदीस : ‘‘जिस व्यक्ति ने (रोज़े की हालत में) झूठ बोलना और उस पर अमल करना न छोड़ा, तो ईश्वर को इसकी कुछ आवश्यकता नहीं कि वह (रोज़ा रखकर) अपना खाना- पीना छोड़ दे।’’ – (हदीस : बुख़ारी)

» मेह्फुम-ए-हदीस : ‘‘कितने ही रोज़ा रखने वाले ऐसे हैं, जिन्हें अपने रोज़े से भूख-प्यास के अतिरिक्त कुछ हासिल नहीं होता।’’ – (हदीस : दारमी) – Ummat-e-Nabi

» रोज़ा रखना इंसान की हर चीज़ को पाबन्द (नियमबद्ध) बनाता है।
• आँख का रोज़ा यह है कि जिस चीज़ को देखने से ईश्वर ने मना किया, उसे न देखें।
• कान का रोज़ा यह है कि जिस बात को सुनने से ईश्वर ने मना किया, उसे न सुनें।
• ज़ुबान का रोज़ा यह है कि जिस बात को बोलने से ईश्वर ने मना किया, उसे न बोलें।
• हाथ का रोज़ा यह है कि जिस काम को करने से ईश्वर ने मना किया, उसे न करें।
• पैर का रोज़ा यह है कि जिस तरफ़ जाने से ईश्वर ने मना किया, उधर न जाएं।
• दिमाग़ का रोज़ा यह है कि जिस बात को सोचने से ईश्वर ने मना किया, उसे न सोचें।
• इसी के साथ-साथ यह भी है कि जिन कामों को ईश्वर ने पसन्द किया, उन्हें किया जाए।
• केवल ईश्वर के बताए गए तरीक़े के अनुसार रोज़ा रखना ही इंसान को लाभ पहुँचाता है।
• ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम) कहते हैं—
» मेह्फुम-ए-हदीस : ‘‘इंसान के हर अमल का सवाब (अच्छा बदला) दस गुना से सात सौ गुना तक बढ़ाया जाता है, मगर ईश्वर फ़रमाता है — रोज़ा इससे अलग है, क्योंकि वह मेरे लिए है और मैं ही इसका जितना चाहूँगा बदला दूँगा।’’ – (हदीस : बुख़ारी व मुस्लिम)

» रोज़े का इंसान के दिमाग़ और उसके शरीर दोनों पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ता है।
• रोज़ा एक वार्षिक ट्रेनिंग कोर्स है। जिसका उद्देश्य इंसान की ऐसी विशेष ट्रेनिंग करना है, जिसके बाद वह साल भर ‘स्वयं केन्द्रित जीवन’ के बजाए, ‘ईश्वर-केन्द्रित जीवन’ व्यतीत कर सके।
• रोज़ा इंसान में अनुशासन (Self Discipline) पैदा करता है, ताकि इंसान अपनी सोचों व कामों को सही दिशा दे सके।
• रोज़ा इंसान का स्वयं पर कन्ट्रोल ठीक करता है। इंसान के अन्दर ग़ुस्सा, ख़्वाहिश (इच्छा), लालच, भूख, सेक्स और दूसरी भावनाएं हैं। इनके साथ इंसान का दो में से एक ही रिश्ता हो सकता है: इंसान इन्हें कन्ट्रोल करे, या ये इंसान को कन्ट्रोल करें। पहली सूरत में लाभ और दूसरी में हानि है। रोज़ा इंसान को इन्हें क़ाबू करना सिखाता है। अर्थात् इंसान को जुर्म और पाप से बचा लेता है।
• रोज़ा रखने के बाद इंसान का आत्मविश्वास और आत्मसंयम व संकल्प शक्ति (Will Power) बढ़ जाती है।
• इंसान जान लेता है कि जब वह खाना-पानी जैसी चीज़ों को दिन भर छोड़ सकता है, जिनके बिना जीवन संभव नहीं, तो वह बुरी बातों व आदतों को तो बड़ी आसानी से छोड़ सकता है। जो व्यक्ति भूख बर्दाश्त कर सकता है, वह दूसरी बातें भी बर्दाश्त (सहन) कर सकता है।
• रोज़ा इंसान में सहनशीलता के स्तर (level of Tolerance) को बढ़ाता है।
• रोज़ा इंसान से स्वार्थपरता (Selfishness) और सुस्ती को दूर करता है।
• रोज़ा ईश्वर की नेमतों (खाना-पानी इत्यादि) के महत्व का एहसास दिलाता है।
• रोज़ा इंसान को ईश्वर का सच्चा शुक्रगुज़ार बन्दा बनता है।
• रोज़े के द्वारा इंसान को भूख-प्यास की तकलीफ़ का अनुभव कराया जाता है, ताकि वह भूखों की भूख और प्यासों की प्यास में उनका हमदर्द बन सके।
• रोज़ा इंसान में त्याग के स्तर (Level of Sacrifice) को बढ़ाता है।
• इस तरह हम समझ सकते हैं कि रोज़ा ईश्वर का मार्गदर्शन मिलने पर उसकी बड़ाई प्रकट करने, उसका शुक्र अदा करने और परहेज़गार बनने के अतिरिक्त, न केवल इंसान के दिमाग़ बल्कि उसके शरीर पर भी बहुत अच्छा प्रभाव डालता है।

ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम) के शब्दों में हम कह सकते हैं —
» मेह्फुम-ए-हदीस : ‘‘हर चीज़ पर उसको पाक, पवित्र करने के लिए ज़कात है और (मानसिक व शारीरिक बीमारियों से पाक करने के लिए) शरीर की ज़कात (दान) रोज़ा है।’’ – (हदीस : इब्ने माजा)

» Urdu Words :
हज़रत : आदरणीय व्यक्तित्व के लिए उपाधि सूचक शब्द।
सलल्लाहो अलैहि वसल्लम : हज़रत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम) पर अल्लाह की रहमत व सलामती हो।
हदीस : अल्लाह के अन्तिम सन्देष्टा हज़रत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम) के वचनों, कर्मों और तरीकों (ढंगों) को हदीस कहते हैं।
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» इंसान के बुनियादी सवाल !!! – इस सम्पूर्ण विश्व और इंसान का अल्लाह (ईश्वर) एक है। ईश्वर ने इंसान को बनाया और उसकी सभी आवश्यकताओं को पूरा करने का प्रबंध किया। इंसान को इस ग्रह पर जीवित रहने के लिए लाइफ सपोर्ट सिस्टम दिया।
इंसान को उसके मूल प्रश्नों का उत्तर भी बताया।
– इंसान को क्या कोई बनाने वाला है? अगर है, तो वह क्या चाहता है?
– इंसान को पैदा क्यों किया गया?
– इंसान के जीवन का उद्देश्य क्या है? अगर है, तो उस उद्देश्य को पाने का तरीक़ा क्या है?
– इंसान को आज़ाद पैदा किया गया या मजबूर?
– अच्छी ज़िन्दगी कैसे गुज़ारी जा सकती है?
– मरने के बाद क्या होगा? इत्यादि। यह इंसान के बुनियादी सवाल हैं, जिनका जानना उसके लिए बहुत ज़रुरी है। इंसानों में से ईश्वर ने कुछ इंसानों को चुना, जो पैग़म्बर (ईशदूत) कहलाए। उन्हें अपना सन्देश भेजा, जो सभी इंसानों के लिए मार्गदर्शन है। पहले इंसान व पैग़म्बर हज़रत आदम (अलैहि॰) से लेकर आख़िरी पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम) तक अनेक ईशदूत आए, जो कि हर क़ौम में भेजे गए। सभी ईशदूतों ने लोगों को उन्हीं की भाषा में ईश्वर का सन्देश दिया।
» प्रश्न यह है कि बार-बार अनेक पैग़म्बर क्यों भेजे गए? 
वास्तव में प्राचीनकाल में परिवहन एवं संचार के साधनों की कमी के कारण, एक जगह की ख़बर दूसरी जगह पहुँचना मुश्किल थी।
दूसरे यह कि लोग ईश्वर के सन्देश को बदल देते थे, तब ज़रुरत होती थी कि दोबारा ईश्वर का सन्देश आए।
सभी पैग़म्बरों ने एक ही सन्देश दिया कि ईश्वर एक है, दुनिया इम्तिहान की जगह है और मरने के बाद जिन्दगी है। पहले के सभी पैग़म्बरों का मिशन लोकल था, मगर आख़िरी पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम) का मिशन यूनीवर्सल है। आख़िरी पैग़म्बर पर ईश्वर का जो अन्तिम सन्देश (क़ुरआन) उतरा, उसकी हिफ़ाज़त की ज़िम्मेदारी स्वयं ईश्वर ने ली है। चौदह सौ साल से अधिक हो चुके हैं, मगर आज तक उसे बदला नहीं जा सका। ईश्वर का सन्देश अपनी असल शक्ल (मूलरूप) में मौजूद है, इसलिए अब ज़रूरत नहीं है कि कोई नया ईशदूत आए।
» क़ुरआन का केन्द्रीय विषय इंसान है। क़ुरआन इंसान के बारे में ईश्वर की स्कीम को बताता है।
क़ुरआन बताता है कि इंसान को सदैव के लिए पैदा किया गया है और उसे शाश्वत जीवन दिया गया है। ईश्वर ने इंसान के जीवन को दो भागों में बाँटा है :
१. मौत से पहले का समय, जो अस्थाई है, इंसान के इम्तिहान के लिए है।
२. मौत के बाद का समय, जो स्वर्ग या नरक के रूप में दुनिया में किए गए अच्छे या बुरे कर्मों का बदला मिलने के लिए है। यह कभी न ख़त्म होने वाला स्थाई दौर है। इन दोनों के बीच में मौत एक तबादले (Transition) के रूप में है।
» इंसान की ज़िन्दगी का उद्देश्य –
क़ुरआन बताता है कि दुनिया इंसान के लिए एक परीक्षास्थल है। इंसान की ज़िन्दगी का उद्देश्य ईश्वर की इबादत (उपासना) है। (क़ुरआन, 51:56) इबादत का अर्थ ईश्वर केन्द्रित जीवन (God-centred life) व्यतीत करना है। इबादत एक पार्ट-टाइम नहीं, बल्कि फुल टाइम अमल है, जो पैदाइश से लेकर मौत तक जारी रहता है।
वास्तव में इंसान की पूरी ज़िन्दगी इबादत है, अगर वह ईश्वर की मर्ज़ी के अनुसार व्यतीत हो। ईश्वर की मर्ज़ी के अनुसार जीवन व्यतीत करने का आदी बनाने के लिए, आवश्यक था कि कुछ प्रशिक्षण भी हो, इसलिए नमाज़, रोज़ा (निराहार उपवास), ज़कात और हज को इसी प्रशिक्षण के रूप में रखा गया। इनमें समय की, एनर्जी की और दौलत की क़ुरबानी द्वारा इंसान को आध्यात्मिक उत्थान के लिए और उसे व्यावहारिक जीवन के लिए लाभदायक बनाने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। इस ट्रेनिंग को बार-बार रखा गया, ताकि इंसान को अच्छाई पर स्थिर रखा जा सके, क्योंकि इंसान अन्दर व बाहर से बदलने वाला अस्तित्व रखता है।
ईश्वर सबसे बेहतर जानता है कि कौन-सी चीज़ इंसान के लिए लाभदायक है और कौन-सी हानिकारक। ईश्वर इंसान का भला चाहता है इसलिए उसने हर वह काम
जिसके करने से इंसान स्वयं को हानि पहुँचाता, करना हराम (अवैध) ठहराया और हर उस काम को जिसके न करने से इंसान स्वयं को हानि पहुँचाता, इबादत कहा और उनका करना इंसान के लिए अनिवार्य कर दिया।
ईश्वर का अन्तिम सन्देश क़ुरआन, दुनिया में पहली बार रमज़ान के महीने में अवतरित होना शुरू हुआ। इसीलिए रमज़ान का महीना क़ुरआन का महीना कहलाया। इसे क़ुरआन के मानने वालों के लिए शुक्रगुज़ारी का महीना बना दिया गया और इस पूरे महीने रोज़े रखने अनिवार्य किए गए।
» रोज़ा एक इबादत है। रोज़े को अरबी भाषा में ‘‘सौम’’ कहते हैं। इसका अर्थ ‘‘रुकने और चुप रहने’’ के हैं। क़ुरआन में इसे ‘‘सब्र’’ भी कहा गया है, जिसका अर्थ है ‘स्वयं पर नियंत्रण’ और स्थिरता व जमाव (Stability)।
इस्लाम में रोज़े का मतलब होता है केवल ईश्वर के लिए, भोर से लेकर सूरज डूबने तक खाने-पीने, सभी बुराइयों (और पति-पत्नी का सहवास करने) से स्वयं को रोके रखना। अनिवार्य रोज़े, जो केवल रमज़ान के महीने में रखे जाते हैं और यह हर व्यस्क मुसलमान के लिए अनिवार्य हैं।
क़ुरआन में कहा गया है—
♥ अल-कुरान : ‘‘ऐ ईमान लाने वालो! तुम पर रोज़े अनिवार्य किए गए, जिस प्रकार तुम से पहले के लोगों पर किए गए थे, शायद कि तुम डर रखने वाले और परहेज़गार बन जाओ।’’ –(क़ुरआन, 2:183)
♥ अल-कुरान : रमज़ान का महीना जिसमें क़ुरआन उतारा गया लोगों के मार्गदर्शन के लिए, और मार्गदर्शन और सत्य-असत्य के अन्तर के प्रमाणों के साथ। अतः तुममें जो कोई इस महीने में मौजूद हो, उसे चाहिए कि उसके रोज़े रखे और जो बीमार हो या यात्रा में हो तो दूसरे दिनों से गिनती पूरी कर ले। ईश्वर तुम्हारे साथ आसानी चाहता है, वह तुम्हारे साथ सख़्ती और कठिनाई नहीं चाहता और चाहता है कि तुम संख्या पूरी कर लो और जो सीधा मार्ग तुम्हें दिखाया गया है, उस पर ईश्वर की बड़ाई प्रकट करो और ताकि तुम कृतज्ञ बनो।’’ – (क़ुरआन, 2:185)
रोज़ा एक बहुत महत्वपूर्ण इबादत है। हर क़ौम में, हर पैग़म्बर ने रोज़ा रखने की बात कही। आज भी रोज़ा हर धर्म में किसी न किसी रूप में मौजूद है। क़ुरआन के अनुसार रोज़े का उद्देश्य इंसान में तक़वा या संयम (God Consciousness) पैदा करना है। तक़वा का एक अर्थ है — ‘ईश्वर का डर’ और दूसरा अर्थ है — ‘ज़िन्दगी में हमेशा एहतियात वाला तरीक़ा अपनाना।’
• ईश्वर का डर एक ऐसी बात है जो इंसान को असावधान होने अर्थात् असफल होने से बचा लेता है।
कु़रआन की आयत (Verse) ‘ताकि तुम डर रखने वाले और परहेज़गार बन जाओ’ (2:183), से पता चलता है कि रोज़ा, इंसान में ईश्वर का डर पैदा करता है और उसे परहेज़गार (संयमी) बनाता है। ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया—
» मेह्फुम-ए-हदीस : ‘‘जिस व्यक्ति ने (रोज़े की हालत में) झूठ बोलना और उस पर अमल करना न छोड़ा, तो ईश्वर को इसकी कुछ आवश्यकता नहीं कि वह (रोज़ा रखकर) अपना खाना- पीना छोड़ दे।’’ – (हदीस : बुख़ारी)
» मेह्फुम-ए-हदीस : ‘‘कितने ही रोज़ा रखने वाले ऐसे हैं, जिन्हें अपने रोज़े से भूख-प्यास के अतिरिक्त कुछ हासिल नहीं होता।’’ – (हदीस : दारमी) – @[156344474474186:]
» रोज़ा रखना इंसान की हर चीज़ को पाबन्द (नियमबद्ध) बनाता है। 
• आँख का रोज़ा यह है कि जिस चीज़ को देखने से ईश्वर ने मना किया, उसे न देखें।
• कान का रोज़ा यह है कि जिस बात को सुनने से ईश्वर ने मना किया, उसे न सुनें।
• ज़ुबान का रोज़ा यह है कि जिस बात को बोलने से ईश्वर ने मना किया, उसे न बोलें।
• हाथ का रोज़ा यह है कि जिस काम को करने से ईश्वर ने मना किया, उसे न करें।
• पैर का रोज़ा यह है कि जिस तरफ़ जाने से ईश्वर ने मना किया, उधर न जाएं।
• दिमाग़ का रोज़ा यह है कि जिस बात को सोचने से ईश्वर ने मना किया, उसे न सोचें।
• इसी के साथ-साथ यह भी है कि जिन कामों को ईश्वर ने पसन्द किया, उन्हें किया जाए।
• केवल ईश्वर के बताए गए तरीक़े के अनुसार रोज़ा रखना ही इंसान को लाभ पहुँचाता है।
• ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम) कहते हैं—
» मेह्फुम-ए-हदीस : ‘‘इंसान के हर अमल का सवाब (अच्छा बदला) दस गुना से सात सौ गुना तक बढ़ाया जाता है, मगर ईश्वर फ़रमाता है — रोज़ा इससे अलग है, क्योंकि वह मेरे लिए है और मैं ही इसका जितना चाहूँगा बदला दूँगा।’’ – (हदीस : बुख़ारी व मुस्लिम)
» रोज़े का इंसान के दिमाग़ और उसके शरीर दोनों पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ता है।
• रोज़ा एक वार्षिक ट्रेनिंग कोर्स है। जिसका उद्देश्य इंसान की ऐसी विशेष ट्रेनिंग करना है, जिसके बाद वह साल भर ‘स्वयं केन्द्रित जीवन’ के बजाए, ‘ईश्वर-केन्द्रित जीवन’ व्यतीत कर सके।
• रोज़ा इंसान में अनुशासन (Self Discipline) पैदा करता है, ताकि इंसान अपनी सोचों व कामों को सही दिशा दे सके।
• रोज़ा इंसान का स्वयं पर कन्ट्रोल ठीक करता है। इंसान के अन्दर ग़ुस्सा, ख़्वाहिश (इच्छा), लालच, भूख, सेक्स और दूसरी भावनाएं हैं। इनके साथ इंसान का दो में से एक ही रिश्ता हो सकता है: इंसान इन्हें कन्ट्रोल करे, या ये इंसान को कन्ट्रोल करें। पहली सूरत में लाभ और दूसरी में हानि है। रोज़ा इंसान को इन्हें क़ाबू करना सिखाता है। अर्थात् इंसान को जुर्म और पाप से बचा लेता है।
• रोज़ा रखने के बाद इंसान का आत्मविश्वास और आत्मसंयम व संकल्प शक्ति (Will Power) बढ़ जाती है।
• इंसान जान लेता है कि जब वह खाना-पानी जैसी चीज़ों को दिन भर छोड़ सकता है, जिनके बिना जीवन संभव नहीं, तो वह बुरी बातों व आदतों को तो बड़ी आसानी से छोड़ सकता है। जो व्यक्ति भूख बर्दाश्त कर सकता है, वह दूसरी बातें भी बर्दाश्त (सहन) कर सकता है।
• रोज़ा इंसान में सहनशीलता के स्तर (level of Tolerance) को बढ़ाता है।
• रोज़ा इंसान से स्वार्थपरता (Selfishness) और सुस्ती को दूर करता है।
• रोज़ा ईश्वर की नेमतों (खाना-पानी इत्यादि) के महत्व का एहसास दिलाता है।
• रोज़ा इंसान को ईश्वर का सच्चा शुक्रगुज़ार बन्दा बनता है।
• रोज़े के द्वारा इंसान को भूख-प्यास की तकलीफ़ का अनुभव कराया जाता है, ताकि वह भूखों की भूख और प्यासों की प्यास में उनका हमदर्द बन सके।
• रोज़ा इंसान में त्याग के स्तर (Level of Sacrifice) को बढ़ाता है।
• इस तरह हम समझ सकते हैं कि रोज़ा ईश्वर का मार्गदर्शन मिलने पर उसकी बड़ाई प्रकट करने, उसका शुक्र अदा करने और परहेज़गार बनने के अतिरिक्त, न केवल इंसान के दिमाग़ बल्कि उसके शरीर पर भी बहुत अच्छा प्रभाव डालता है।
ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम) के शब्दों में हम कह सकते हैं —
» इंसान के बुनियादी सवाल !!! – इस सम्पूर्ण विश्व और इंसान का अल्लाह (ईश्वर) एक है। ईश्वर ने इंसान को बनाया और उसकी सभी आवश्यकताओं को पूरा करने का प्रबंध किया। इंसान को इस ग्रह पर जीवित रहने के लिए लाइफ सपोर्ट सिस्टम दिया।
इंसान को उसके मूल प्रश्नों का उत्तर भी बताया।
– इंसान को क्या कोई बनाने वाला है? अगर है, तो वह क्या चाहता है?
– इंसान को पैदा क्यों किया गया?
– इंसान के जीवन का उद्देश्य क्या है? अगर है, तो उस उद्देश्य को पाने का तरीक़ा क्या है?
– इंसान को आज़ाद पैदा किया गया या मजबूर?
– अच्छी ज़िन्दगी कैसे गुज़ारी जा सकती है?
– मरने के बाद क्या होगा? इत्यादि। यह इंसान के बुनियादी सवाल हैं, जिनका जानना उसके लिए बहुत ज़रुरी है। इंसानों में से ईश्वर ने कुछ इंसानों को चुना, जो पैग़म्बर (ईशदूत) कहलाए। उन्हें अपना सन्देश भेजा, जो सभी इंसानों के लिए मार्गदर्शन है। पहले इंसान व पैग़म्बर हज़रत आदम (अलैहि॰) से लेकर आख़िरी पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम) तक अनेक ईशदूत आए, जो कि हर क़ौम में भेजे गए। सभी ईशदूतों ने लोगों को उन्हीं की भाषा में ईश्वर का सन्देश दिया।
» प्रश्न यह है कि बार-बार अनेक पैग़म्बर क्यों भेजे गए? 
वास्तव में प्राचीनकाल में परिवहन एवं संचार के साधनों की कमी के कारण, एक जगह की ख़बर दूसरी जगह पहुँचना मुश्किल थी।
दूसरे यह कि लोग ईश्वर के सन्देश को बदल देते थे, तब ज़रुरत होती थी कि दोबारा ईश्वर का सन्देश आए।
सभी पैग़म्बरों ने एक ही सन्देश दिया कि ईश्वर एक है, दुनिया इम्तिहान की जगह है और मरने के बाद जिन्दगी है। पहले के सभी पैग़म्बरों का मिशन लोकल था, मगर आख़िरी पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम) का मिशन यूनीवर्सल है। आख़िरी पैग़म्बर पर ईश्वर का जो अन्तिम सन्देश (क़ुरआन) उतरा, उसकी हिफ़ाज़त की ज़िम्मेदारी स्वयं ईश्वर ने ली है। चौदह सौ साल से अधिक हो चुके हैं, मगर आज तक उसे बदला नहीं जा सका। ईश्वर का सन्देश अपनी असल शक्ल (मूलरूप) में मौजूद है, इसलिए अब ज़रूरत नहीं है कि कोई नया ईशदूत आए।
» क़ुरआन का केन्द्रीय विषय इंसान है। क़ुरआन इंसान के बारे में ईश्वर की स्कीम को बताता है।
क़ुरआन बताता है कि इंसान को सदैव के लिए पैदा किया गया है और उसे शाश्वत जीवन दिया गया है। ईश्वर ने इंसान के जीवन को दो भागों में बाँटा है :
१. मौत से पहले का समय, जो अस्थाई है, इंसान के इम्तिहान के लिए है।
२. मौत के बाद का समय, जो स्वर्ग या नरक के रूप में दुनिया में किए गए अच्छे या बुरे कर्मों का बदला मिलने के लिए है। यह कभी न ख़त्म होने वाला स्थाई दौर है। इन दोनों के बीच में मौत एक तबादले (Transition) के रूप में है।
» इंसान की ज़िन्दगी का उद्देश्य –
क़ुरआन बताता है कि दुनिया इंसान के लिए एक परीक्षास्थल है। इंसान की ज़िन्दगी का उद्देश्य ईश्वर की इबादत (उपासना) है। (क़ुरआन, 51:56) इबादत का अर्थ ईश्वर केन्द्रित जीवन (God-centred life) व्यतीत करना है। इबादत एक पार्ट-टाइम नहीं, बल्कि फुल टाइम अमल है, जो पैदाइश से लेकर मौत तक जारी रहता है।
वास्तव में इंसान की पूरी ज़िन्दगी इबादत है, अगर वह ईश्वर की मर्ज़ी के अनुसार व्यतीत हो। ईश्वर की मर्ज़ी के अनुसार जीवन व्यतीत करने का आदी बनाने के लिए, आवश्यक था कि कुछ प्रशिक्षण भी हो, इसलिए नमाज़, रोज़ा (निराहार उपवास), ज़कात और हज को इसी प्रशिक्षण के रूप में रखा गया। इनमें समय की, एनर्जी की और दौलत की क़ुरबानी द्वारा इंसान को आध्यात्मिक उत्थान के लिए और उसे व्यावहारिक जीवन के लिए लाभदायक बनाने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। इस ट्रेनिंग को बार-बार रखा गया, ताकि इंसान को अच्छाई पर स्थिर रखा जा सके, क्योंकि इंसान अन्दर व बाहर से बदलने वाला अस्तित्व रखता है।
ईश्वर सबसे बेहतर जानता है कि कौन-सी चीज़ इंसान के लिए लाभदायक है और कौन-सी हानिकारक। ईश्वर इंसान का भला चाहता है इसलिए उसने हर वह काम
जिसके करने से इंसान स्वयं को हानि पहुँचाता, करना हराम (अवैध) ठहराया और हर उस काम को जिसके न करने से इंसान स्वयं को हानि पहुँचाता, इबादत कहा और उनका करना इंसान के लिए अनिवार्य कर दिया।
ईश्वर का अन्तिम सन्देश क़ुरआन, दुनिया में पहली बार रमज़ान के महीने में अवतरित होना शुरू हुआ। इसीलिए रमज़ान का महीना क़ुरआन का महीना कहलाया। इसे क़ुरआन के मानने वालों के लिए शुक्रगुज़ारी का महीना बना दिया गया और इस पूरे महीने रोज़े रखने अनिवार्य किए गए।
» रोज़ा एक इबादत है। रोज़े को अरबी भाषा में ‘‘सौम’’ कहते हैं। इसका अर्थ ‘‘रुकने और चुप रहने’’ के हैं। क़ुरआन में इसे ‘‘सब्र’’ भी कहा गया है, जिसका अर्थ है ‘स्वयं पर नियंत्रण’ और स्थिरता व जमाव (Stability)।
इस्लाम में रोज़े का मतलब होता है केवल ईश्वर के लिए, भोर से लेकर सूरज डूबने तक खाने-पीने, सभी बुराइयों (और पति-पत्नी का सहवास करने) से स्वयं को रोके रखना। अनिवार्य रोज़े, जो केवल रमज़ान के महीने में रखे जाते हैं और यह हर व्यस्क मुसलमान के लिए अनिवार्य हैं।
क़ुरआन में कहा गया है—
♥ अल-कुरान : ‘‘ऐ ईमान लाने वालो! तुम पर रोज़े अनिवार्य किए गए, जिस प्रकार तुम से पहले के लोगों पर किए गए थे, शायद कि तुम डर रखने वाले और परहेज़गार बन जाओ।’’ –(क़ुरआन, 2:183)
♥ अल-कुरान : रमज़ान का महीना जिसमें क़ुरआन उतारा गया लोगों के मार्गदर्शन के लिए, और मार्गदर्शन और सत्य-असत्य के अन्तर के प्रमाणों के साथ। अतः तुममें जो कोई इस महीने में मौजूद हो, उसे चाहिए कि उसके रोज़े रखे और जो बीमार हो या यात्रा में हो तो दूसरे दिनों से गिनती पूरी कर ले। ईश्वर तुम्हारे साथ आसानी चाहता है, वह तुम्हारे साथ सख़्ती और कठिनाई नहीं चाहता और चाहता है कि तुम संख्या पूरी कर लो और जो सीधा मार्ग तुम्हें दिखाया गया है, उस पर ईश्वर की बड़ाई प्रकट करो और ताकि तुम कृतज्ञ बनो।’’ – (क़ुरआन, 2:185)
रोज़ा एक बहुत महत्वपूर्ण इबादत है। हर क़ौम में, हर पैग़म्बर ने रोज़ा रखने की बात कही। आज भी रोज़ा हर धर्म में किसी न किसी रूप में मौजूद है। क़ुरआन के अनुसार रोज़े का उद्देश्य इंसान में तक़वा या संयम (God Consciousness) पैदा करना है। तक़वा का एक अर्थ है — ‘ईश्वर का डर’ और दूसरा अर्थ है — ‘ज़िन्दगी में हमेशा एहतियात वाला तरीक़ा अपनाना।’
• ईश्वर का डर एक ऐसी बात है जो इंसान को असावधान होने अर्थात् असफल होने से बचा लेता है।
कु़रआन की आयत (Verse) ‘ताकि तुम डर रखने वाले और परहेज़गार बन जाओ’ (2:183), से पता चलता है कि रोज़ा, इंसान में ईश्वर का डर पैदा करता है और उसे परहेज़गार (संयमी) बनाता है। ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया—
» मेह्फुम-ए-हदीस : ‘‘जिस व्यक्ति ने (रोज़े की हालत में) झूठ बोलना और उस पर अमल करना न छोड़ा, तो ईश्वर को इसकी कुछ आवश्यकता नहीं कि वह (रोज़ा रखकर) अपना खाना- पीना छोड़ दे।’’ – (हदीस : बुख़ारी)
» मेह्फुम-ए-हदीस : ‘‘कितने ही रोज़ा रखने वाले ऐसे हैं, जिन्हें अपने रोज़े से भूख-प्यास के अतिरिक्त कुछ हासिल नहीं होता।’’ – (हदीस : दारमी) – @[156344474474186:]
» रोज़ा रखना इंसान की हर चीज़ को पाबन्द (नियमबद्ध) बनाता है। 
• आँख का रोज़ा यह है कि जिस चीज़ को देखने से ईश्वर ने मना किया, उसे न देखें।
• कान का रोज़ा यह है कि जिस बात को सुनने से ईश्वर ने मना किया, उसे न सुनें।
• ज़ुबान का रोज़ा यह है कि जिस बात को बोलने से ईश्वर ने मना किया, उसे न बोलें।
• हाथ का रोज़ा यह है कि जिस काम को करने से ईश्वर ने मना किया, उसे न करें।
• पैर का रोज़ा यह है कि जिस तरफ़ जाने से ईश्वर ने मना किया, उधर न जाएं।
• दिमाग़ का रोज़ा यह है कि जिस बात को सोचने से ईश्वर ने मना किया, उसे न सोचें।
• इसी के साथ-साथ यह भी है कि जिन कामों को ईश्वर ने पसन्द किया, उन्हें किया जाए।
• केवल ईश्वर के बताए गए तरीक़े के अनुसार रोज़ा रखना ही इंसान को लाभ पहुँचाता है।
• ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम) कहते हैं—
» मेह्फुम-ए-हदीस : ‘‘इंसान के हर अमल का सवाब (अच्छा बदला) दस गुना से सात सौ गुना तक बढ़ाया जाता है, मगर ईश्वर फ़रमाता है — रोज़ा इससे अलग है, क्योंकि वह मेरे लिए है और मैं ही इसका जितना चाहूँगा बदला दूँगा।’’ – (हदीस : बुख़ारी व मुस्लिम)
» रोज़े का इंसान के दिमाग़ और उसके शरीर दोनों पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ता है।
• रोज़ा एक वार्षिक ट्रेनिंग कोर्स है। जिसका उद्देश्य इंसान की ऐसी विशेष ट्रेनिंग करना है, जिसके बाद वह साल भर ‘स्वयं केन्द्रित जीवन’ के बजाए, ‘ईश्वर-केन्द्रित जीवन’ व्यतीत कर सके।
• रोज़ा इंसान में अनुशासन (Self Discipline) पैदा करता है, ताकि इंसान अपनी सोचों व कामों को सही दिशा दे सके।
• रोज़ा इंसान का स्वयं पर कन्ट्रोल ठीक करता है। इंसान के अन्दर ग़ुस्सा, ख़्वाहिश (इच्छा), लालच, भूख, सेक्स और दूसरी भावनाएं हैं। इनके साथ इंसान का दो में से एक ही रिश्ता हो सकता है: इंसान इन्हें कन्ट्रोल करे, या ये इंसान को कन्ट्रोल करें। पहली सूरत में लाभ और दूसरी में हानि है। रोज़ा इंसान को इन्हें क़ाबू करना सिखाता है। अर्थात् इंसान को जुर्म और पाप से बचा लेता है।
• रोज़ा रखने के बाद इंसान का आत्मविश्वास और आत्मसंयम व संकल्प शक्ति (Will Power) बढ़ जाती है।
• इंसान जान लेता है कि जब वह खाना-पानी जैसी चीज़ों को दिन भर छोड़ सकता है, जिनके बिना जीवन संभव नहीं, तो वह बुरी बातों व आदतों को तो बड़ी आसानी से छोड़ सकता है। जो व्यक्ति भूख बर्दाश्त कर सकता है, वह दूसरी बातें भी बर्दाश्त (सहन) कर सकता है।
• रोज़ा इंसान में सहनशीलता के स्तर (level of Tolerance) को बढ़ाता है।
• रोज़ा इंसान से स्वार्थपरता (Selfishness) और सुस्ती को दूर करता है।
• रोज़ा ईश्वर की नेमतों (खाना-पानी इत्यादि) के महत्व का एहसास दिलाता है।
• रोज़ा इंसान को ईश्वर का सच्चा शुक्रगुज़ार बन्दा बनता है।
• रोज़े के द्वारा इंसान को भूख-प्यास की तकलीफ़ का अनुभव कराया जाता है, ताकि वह भूखों की भूख और प्यासों की प्यास में उनका हमदर्द बन सके।
• रोज़ा इंसान में त्याग के स्तर (Level of Sacrifice) को बढ़ाता है।
• इस तरह हम समझ सकते हैं कि रोज़ा ईश्वर का मार्गदर्शन मिलने पर उसकी बड़ाई प्रकट करने, उसका शुक्र अदा करने और परहेज़गार बनने के अतिरिक्त, न केवल इंसान के दिमाग़ बल्कि उसके शरीर पर भी बहुत अच्छा प्रभाव डालता है।
ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम) के शब्दों में हम कह सकते हैं —
» मेह्फुम-ए-हदीस : ‘‘हर चीज़ पर उसको पाक, पवित्र करने के लिए ज़कात है और (मानसिक व शारीरिक बीमारियों से पाक करने के लिए) शरीर की ज़कात (दान) रोज़ा है।’’ – (हदीस : इब्ने माजा) 

Friday 13 May 2016

हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम की जीवनी



हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम Moses (PBUH)

 

मूसा (Moses) सभी इब्राहिमी धर्मों में एक प्रमुख नबी (ईश्वरीय सन्देशवाहक) हैं । ख़ास तौर पर वो यहूदी धर्म के संस्थापक माने जाते हैं । बाइबल में हज़रत मूसा की कहानी दी गयी है, जिसके मुताबिक मिस्र के फ़राओ के ज़माने में जन्मे मूसा यहूदी माता-पिता के की औलाद थे पर मौत के डर से उनको उनकी माँ ने नील नदी में बहा दिया। उनको फिर फ़राओ की पत्नी ने पाला और मूसा एक मिस्री राजकुमार बने । बाद में मूसा को मालूम हुआ कि वो यहूदी हैं और उनका यहूदी राष्ट्र (जिसको फरओ ने ग़ुलाम बना लिया था) अत्याचार सह रहा है । मूसा का एक पहाड़ पर परमेश्वर से साक्षात्कार हुआ।

जब मूसा ईश्वरीय-आदेश पाने के लिए माउंट सेनाई (सेनाई पर्वत) पर चले. इस्राएल को यह डर सताने लगा कि वे लौट कर नहीं आएंगे और उन्होंने हारून से उनके लिए इस्राएल के ईश्वर की मूर्ति बनाने के लिए कहा हालांकि, हारून ने इस्राएल के परमेश्वर का प्रतिनिधि बनने से इनकार कर दिया. इस्राएलियों ने हारून को अभिभूत करने के लिए काफी शिकायत की थी, इसलिए उसने उनका अनुपालन किया और इस्राएलियों के कानों की सोने की बालियां इकट्ठी की. उसने उसे पिघलाया और सोने की एक जवान बैल की मूर्ती बनाई गई. बैल की पूजा कई संस्कृतियों में आम बात थी. मिस्र में, निष्क्रमण के विवरण के अनुसार जब इब्रानी (यहूदी) लोगों को आये अधिक समय नहीं हुआ था तब ही, एपिस बुल एवं बैल के सिर वाला खनुम पूज्य पात्र थे, जैसा कि कुछ लोगों का मानना है, निर्वासन के समय इब्रानी पुनर्जीवन प्राप्त कर रहे थे; वैकल्पिक रूप से, कुछ लोगों का विश्वास है कि इस्राएल के ईश्वर का संबंध चित्रित बछड़े/बैल देवता के रूप में धार्मिक रूप से आत्मसात और समन्वयता करने की प्रक्रिया के माध्यम से अंगीकृत कर लिया जाना था. मिस्रवासियों एवं इब्रानियों के मध्य प्राचीन पड़ोसियों में निकटरूप पूर्व में तथा ईजियन में, ऑरोक्स, वन्य बैल, की व्यापक रूप से पूजा की जाती थी, अक्सर चन्द्र बैल एवं ईएल के प्राणी के रूप में. इसकी मिनियोन अविभार्व के कारण यूनानी मिथक में क्रेटन बैल के रूप में उत्तरजीवी रहा. भारत में अनेक हिन्दुओं के लिए यह पूज्य है. यूनानियों (मिस्रवासियों) के बीच हाथोर को गाय के रूप में प्रतिनिधित्व प्राप्त है, एवं साथ ही साथ इसे आकाश गंगा के रूप में पेश किया जाता है, और अक्सर इसकी पहचान अपने पड़ोसी की देवी ईएल आशेरा के समकक्ष ही की गई. इब्रियों जनजातियों का विकास इन लोगों और पैन्थिओन के बीच होता गया.


अतः बछड़े की मूर्ति बनाई. हारून ने बछड़े के सामने एक वेदी भी बनाई और यह घोषणा भी कर दी कि इस्राएल के लोगों, ये तुम्हारे ईश्वर हैं, जो तुमलोगों का मिस्र की जमीन से बाहर ले आया है". और दूसरे ही दिन, इस्राएलियों ने सोने के बछड़े को भेंट अर्पित की और(अश्लील) नाच किया गया, उत्सव मनाया. मूसा ने जब उन्हें यह सबकुछ करते देखा तो वे उनसे क्रोधित हो गए, उन्होंने उन शिला लेखों को जिस पर ईश्वर ने इस्राएलियों के लिए अपने कानून लिखे थे, ज़मीन पर फेंक दिया.

सोने का बछड़ा बनाने और उसकी पूजा करने से दोषमुक्ति को क़ुरान की सूरा ताहा के [90-94] आयतों में देखा जा सकता है:

"इससे पहले ही हारून ने उनसे कहा था: "ऐ मेरे लोगों [इस्राएल के बच्चे] तुम्हारा इम्तिहान इसी में है: वास्तव में तुम्हारे मालिक (अल्लाह) हैं सबसे ज्यादा दयालु (रहमदिल); इसलिए मेरे अनुगामी बनो और मेरे आदेशों का अनुपालन करो" (90) उन्होंने कहा: "हम इस पंथ का त्याग नहीं करेंगे, लेकिन हम तब तक खुद को इसके लिए समर्पित कर देंगे जब तक कि मूसा वापस नहीं आते." (91) (मूसा) ने कहा: "हे हारून! किस बात ने तुम्हें पीछे कर दिया? (92) जबकि तुमने देखा कि वे गलत राह पर जा रहे थे. क्या तुमने तब मेरे आदेश की अवज्ञा की ?" (93) (हारून) ने जाब दिया: "ऐ मेरी मां के बेटे! (मुझे) मेरी दाढ़ी से न पकड़ो और न ही, मेरे सिर के (केशों) से! सचमुच मुझे इस बात का डर था कि आप कहीं यह न कहें कि "तू ने इस्राएल के बच्चों के बीच एक विभाजन खड़ा कर दिया है, और तू मेरे वचन का सम्मान नहीं करता है." (94)"

बाद में, अल्लाह ने मूसा से कहा कि उसके लोगों ने अपने आप को पाप में लिप्त कर लिया है, एवं उन्होंने उन्हें नष्ट कर देने की योजना बनाई है इस्राएलियों पर प्लेग की महामारी का आक्रमण हो गया. ईश्वर के अनुसार, एक दिन वे अवश्य इस्राएलियों के पाप लिए उनके पास आएंगे.

अल्लाह की मदद से उन्होंने फ़राओ को हराकर यहूदियों को आज़ाद कराया और मिस्र से एक नयी भूमि इस्राइल पहुँचाया । इसके बाद मूसा ने इस्राइल को अल्लाह द्वारा मिले "दस आदेश" दिये जो आज भी यहूदी धर्म का प्रमुख स्तम्भ है ।
1. माता-पिता का आदर करो

2. हत्या न करो

3.व्यभिचार न करो

4. चोरी न करो

5. झूठी गवाही न दो

६. एक ही ईश्वर है

७. छह दिन काम एक दिन आराम करो.

८.परस्त्री के पास न जाओ

9.दास, दासी और पशुओं की रक्षा करो

10. लालच मत करो

यहूदी धर्म के प्रमुख उपदेश:

यहूदी धर्म में धर्मानुयायियों के लिए कुछ उपदेश दिए गए हैं जो कि इस प्रकार हैं :

1. किसी पर अन्याय मत करो।

2. किसी का शोषण मत करो।

3. किसी से ब्याज मत लो, कम नफा लो।

4. किसी को भी मत सताओ।

5. गुलामों को गुलामी से मुक्त करो।

6. सदाचार का पालन करो।

7. लालच मत करो, झूठ मत बोलो।

8. ईश्वर सबसे बड़ा है, ईश्वर से प्रेम करो।

9. अपने भाई एवं सबका हित करो, मन वचन से कर्म करो।

10. अल्लाह ही ईश्वर है, उनका आदेश मानो।

11. प्रेम, करुणा, सत्य, ब्रह्मचर्य, श्रमनिष्ठ, दु:खी की सेवा सदाचार अपनाओ ये यहोबा ने कहा है।

यहूदी धर्म द्वारा बताई सात बुराइयां

1. घमंड से चढ़ी आंखें।

2. झूठ बोलने वाली जीभ।

3. निर्दोष का खून बहाने वाले हाथ।

4. अनर्थ कल्पना करने वाला मन।

5. बुराई की ओर बढऩे वाले पैर।

6. भाईयों के बीच फूट डालने वाले मानव।

7. झूठ बोलने वाला गवाह।

मूसा के उपदेशों में दो बातें मुख्य हैं : एक-अन्य देवी देवताओं की पूजा को छोड़कर एक निराकार ईश्वर की उपासना और दूसरी सदाचार के दस नियमों का पालन।

  • तौरात के अध्याय व्यवस्था विवरण 18 :18-19 में आया है कि "हे मूसा! मैं बनी इस्राईल के लिए उनके भाईयों ही में से तेरे समान एक नबी बनाऊँगा और अपने वचन (आदेश) को उसके मुँह में रख दूँगा। और वह उन से वही बात कहेगा जिसका मैं उसे आदेश दूँगा। जो आदमी उस नबी की बात नहीं मानेगा जो मेरे नाम पर बोलेगा तो मैं उस से और उसके क़बीले से इंतिक़ाम लूँगा।" ये शब्द आज तक उन की किताबों में मौजूद हैं, और उनके कथन "उनके भाईयों में से" यदि इस से अभिप्राय यह होता कि उन्हीं में से अर्थात् बनी इस्राईल में से होता तो वह इस प्रकार कहते कि: मैं उन्हीं में से उन के लिए एक नबी खड़ा करूँगा, जबकि उनके भाईयों में से कहा हैं जिसका मतलब है कि इसमाईल के बेटों में से। 
  • यह कथन पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के अलावा किसी और पर लागू नहीं होता है

Thursday 5 May 2016

शबे-ए-मेराज की नमाज़

Shab e Meraj ki Namaz
Shab e Meraj ki kuch namaze ::::
1.Maahe Rajab ki 27vi shab ko 12
rakat namaz 3 salaam se padhe pehle
4 rakat me baad Surah Fateha ke
Surah Qadr 3 martaba har rakat me
padhe,
baad salaam ke 70 martaba baith kar
LA ILAHA IL’LALLAHUL MALIKUL
HAKKUL MUBIN padhe.
Dushri 4 rakat me baad Surah Fateha
ke Surah Nasr 3 martaba har rakaat
me padhe,
baad salaam ke baith kar 70 martaba
LA ILAHA IL’LALLAHUL MALIKUL
HAKKUL MUBIN padhe.
Tisri 4 rakat me baad Surah Fateha ke
Surah Ikhlaas 3 martaba har rakat me
padhe,
baad salaam baithkar 70 martaba
Surah Alam Nasrah padhe.
Phir Baargaah e Rabbul Izzat me dua
maange IN SHA ALLAH TA’ALA jo
hajaat hogi wo ALLAH PAK qabool
farmayega.
2. Maahe Rajab ki 27vi shab ko 20
rakat namaz 10 salaam se padhe har
rakaat me Surah Fateha ke baad
Surah Ikhlaas 1 dafa padhe.
IN SHA ALLAH TA’ALA jo koi ye namaz
padhe to ALLAH TA’ALA uske jaano
maal ki hifazat farmayega.
3. 27vi shab ko 4 rakat namaz 2
salaam se padhe har rakat me Surah
Fateha ke baad Surah Ikhlaas 27
martaba padhe,
baad salaam ke 70 martaba darood
paak padhe aur apne gunaho ki
magfirat talab kare
IN SHAA ALLAH TA’ALA parwar digaar
e aalam apne rehmat e kaamila se
uske gunah muaf farma kar uski
magfirat farmayega.
4.Maahe Rajab ki 27vi tarikh baad
namaz e zohar 4 rakat namaz ek
salaam se padhe.
Pehli rakat me baad Surah e Fateha
ke Surah Qadr 3 martaba,
Dusri me Baad Surah Fateha ke Surah
Ikhlaas 3 dafa,
Tisri me Baad Surah Fateha ke Surah
Falak 3 martaba,
aur chouthi me Baad Surah Fateha ke
Surah Naas 3 martaba pade.
Baad salaam ke darood paak 100
martaba aur Istegfar 100 martaba
padhe.
Ye namaz har murad ke liye IN SHAA
ALLAH TA’ALA bahot afzal hai.
(Book name as a refrence:
Baarah Mahino ki nafl Namaze
(Aukaatu salaat) ,Page No.17)

Shabe-E-Barat

Shab-e-Barat
Mid-Sha'ban two words, and the procession is made up of Shab, meaning night of Shab is where the procession would mean acquittal. According to the Islamic calendar month of the night once a year on the 14th of Sha`ban begins after sunset. For Muslims it is extremely virtue night (glory) is the night, the day all the Muslims of the world are worshiping Allah. They are praying and repent of your sins.
description
This week Arabia Lylatul Barah or Lylatun Nisfe SHABAN is known. Mid-Sha'ban called it India, Pakistan, Bangladesh, Iran, Afghanistan and Nepal are known.

References

शबे-ऐ-मेराज क्या है?

मेराज की रात अल्लाह तआला ने अपने महबूब नबी (स०अ०व्०) को आलमे दुनिया, आलमे बरजख, आलमे आखिरत और आलमे मलकूत की सैर कराते हुए अपनी बारगाह में बुलाया और इतना करीब किया और राज व नियाज की ऐसी बाते की कि तमाम अव्वलीन व आखिरीन फरिश्ते व जिन्न बल्कि अम्बिया व रसूल सब रश्क करते रह गए और तजल्लियाते इलाही की ऐसी दीद हुई कि उससे पहले किसी को हुई थी न इसके बाद किसी को होगी।

तमाम मखलूकात में यह एजाज सिर्फ आप (स०अ०व०) को हासिल हुआ है। एजाज के हर मौके पर रसूल (स०अ०व०) ने अपनी प्यारी उम्मत को याद रखा, राज व नियाज की बातों के बीच उम्मत का भी तजकिरा आया होगा। आप (स०अ०व०) ने तजल्लियाते इलाही का दीदार किया। अल्लाह तआला ने अपने महबूब को दरबारे तजल्ली में बुलाया ही था नवाजिश के लिए, बुलाकर हर ख्वाहिश पूरी की, उम्मत के लिए भी मेराज का तोहफा पेश किया।

यानी नमाज से नवाजा और फरमाया कि यही आप(स०अ०व०) की उम्मत की मेराज है। अव्वलन पचास वक्त की नमाजे फर्ज थीं फिर बाद में पांच नमाजे रह गईं। यह महज फजल खुदावंदी है कि हम नमाज पंजगाना की अदाएगी पर पचास वक्त की नमाजों का सबाब पाते हैं।

इस्लाम में नमाज की अहमियत और वकअत के लिए इतना ही काफी है कि वह इस्लाम के पांच सुतूनों में से एक अहम सुतून है। नबी करीम (स०अ०व०) ने फरमाया- कयामत में सबसे पहले नमाज के बारे में पूछा जाएगा। इरशादे नबवी है- यानी कयामत के दिन बंदे से उनके आमाल में सबसे पहले जिस चीज का हिसाब लिया जाएगा वह नमाज होगी।

यह अल्लाह और उसके नेक बंदे के बीच कुर्बत का सबसे बेहतरीन जरिया है। नबी करीम (स०अ०व०) ने फरमाया नमाजी जब नमाज पढ़ता है तो अपने रब से सरगोशी करता है, नमाज मोमिन की मेराज है आंखों की ठंडक, दिल की रौशनी, दिमाग की आसूदगी व राहत नमाज से हासिल होती है।

नमाज एत्तेहाद व इत्तेफाक और इताअत व फरमाबरदारी का अमली नमूना है। अरबी व अजमी, अमीर व गरीब, गुलाम व आका, शाह व भिखारी, ओहदेदार व बेओहदेदार, हाकिम व महकूम सब एक ही सफ मे खड़े हो जाते हैं, न कोई बंदा है और न कोई बंदा नवाज। नमाज हर बालिग पर लाजिम है।

इससे किसी को छुटकारा नहीं। सेहतमंद हो या बीमार, आलिम हो या जाहिल, शाह हो या भिखारी, साहबे दौलत हो या मुफलिस, हिन्दी हो सिंधी, अरबी हो या अजमी, मशरिकी हो या मगरिबी हर मुसलमान पर नमाज पंजगाना फर्ज है। सुकून व इत्मीनान की हालत में हो या जंग व जिदाल का खौफनाक और हौलनाक मंजर जिसमें तीरों की बारिश हो रही हो नेजो और तलवारों की बिजलियां चमक रही हों, लेकिन नमाज की सफ यहां भी कायम।

पांचो नमाजों को अपने अपने वक्तों में अदा करने से हर काम वक्त मुकर्ररा पर अंजाम देने की आदत हो जाती है और यह दोनों जहां में कामयाबी की निशानी है। पांचों नमाजों में जुमा और ईदैन में लोगों का इज्तिमा होता है जिसकी वजह से आपसी मोहब्बत व ताल्लुक एक दूसरे के हालात से वाकफियत और तमाम इज्तिमाई काम की अंजामदेही में आसानी हो जाती है।

अमीर व फकीर एक जगह जमा होते हैं और अमीरों में गरीबों, मोहताजों, यतीमों और बेवाओं पर तरस खाने और उनकी मदद करने का जज्बा पैदा होता है। नमाज हर वक्त अल्लाह की याद, आखिरत की फिक्र व तैयारी, हक पर कायम रहने, बातिल को मिटाने का फितरी जज्बा मोमिन में पैदा करती है।

यह गुनाहों और नाफरमानियों से बाज रखती है। अल्लाह तआला ने परेशानी की घड़ी में सब्र और नमाज के जरिए मदद चाहने की तलकीन की है।

बेशक नमाज के अन्दर यह बरकात व फैजानात मौजूद है। आज भी अगर कोई पूरे खुशूअ व खुजूअ के साथ नमाज की पाबंदी करे तो उसे इसी दुनिया में मेराज और तजल्लियाते इलाही नसीब हो जाए और अगर पूरी उम्मत को नमाज कायम करने की तौफीक मिल जाए तो उम्मत के अन्दर मौजूद तमाम रजायल दूर हो जाएं और उसको अपनी खोई हुई अजमत मिल जाए।

मेराज मुसलमानों के लिए एक अजीम इनाम भी है। मगर आज हम शबे मेराज में क्या करते हैं? अगर उनकी तफसीलात बयान की जाए तो सिवाए अफसोस के और कुछ नहीं होगा। हम शबे मेराज को सैर व तफरीह की रात समझते हैं। इसे कव्वाली, गजल और गपशप तक महदूद किए हुए हैं।

इतनी अहम व अजीम रात को हम यूं ही गुजार देते हैं। हमने बहुत से ऐसे लोगों को भी देखा है जिनका पूरा घर पांच वक्त की नमाज तो नहीं पढ़ता मगर शबे मेराज में सब नहा धोकर साफ कपड़े पहन कर रात भर तसबीह व नवाफिल पढ़ते रहते हैं। मुमकिन है वह इस रात की अहमियत को न समझते हों मगर उलेमा और दानिश्वराने कौम इस रात की अहमियत और तकाजे क्यों नहीं बताते? दरअसल शबे मेराज को हमने एक त्योहार समझ रखा है।

हम नबी करीम (स०अ०व०) के तरीके को नहीं समझते। सहाबा और बुर्जुगाने दीन के अमल को नहीं अपनाते। इस रिवायती अंदाज में इतनी अहम रात को त्योहार की तरह गुजार देते हैं यह मुसलमानों का तरीका नहीं। पांच वक्त की नमाज का अजीम तोहफा शबे मेराज में अल्लाह तआला ने अपने महबूब हजरत मोहम्मद (स०अ०व०) को दिया। क्या हम उस तोहफे को समझ सके। नमाज मोमिन की मेराज है, नमाज दीन का सुतून है क्या यह सब हुजूर का फरमान नहीं? फिर हम इसे क्यों नहीं मानते उस पर अमल क्यों नहीं करते।

तमाम मसायल का हल नमाज है, तमाम तरह की परेशानियों का इलाज नमाज है जिस घर के लोग नमाजी हैं उस घर में अल्लाह की रहमत व बरकत नाजिल होती है, आने वाली बलाएं टल जाती हैं, ईमान सलामत रहता है। हम नमाज नहीं पढ़ते हैं तो शबे मेराज मनाने का हक नहीं है। कितने अफसोस की बात है कि नमाज छोड़कर हम खुद दीन की बुनियादों को खोखला कर रहे हैं।

अल्लाह ने कुरआन में बार-बार नमाज कायम करने का हुक्म दिया है फिर भी हम नहीं पढ़ते। गोया अल्लाह और कुरआन के एहकाम को झुटलाते हैं फिर हम कैसे मुसलमान है? हम अगर वाकई मुसलमान बन जाएं, अल्लाह व उसके रसूल के एहकामात पर सख्ती से अमल करें तो हमारी जिंदगी में एक नया इंकलाब आएगा।

मगर अफसोस कि शैतान हमारे दिल व दिमाग पर इस तरह हावी है कि हम सब कुछ समझकर भी महसूस नहीं करते। हमारा एहसास मर चुका है, दिल सयाह ( काला) हो चुका है तो अच्छी बातें कहां से हमारे दिल व दिमाग में आएंगी। नवाफिल पढ़ रहे हैं तस्वीह पढ़ रहे हैं क्या यह अमल काबिले कुबूल होगा। अल्लाह का उसूल और उसका कानून बरहक है।

उसकी खिलाफवर्जी करके दिन रात अल्लाह-अल्लाह करते रहे कुछ नहीं होता जो तरीका बता दिया गया जिस तरीके पर चलकर नबी करीम (स०अ०व०) ने दिखा दिया है जब तक उसकी तकलीद नहीं करेंगे सब बेकार है। मुसलमानों को शोबाजी और दिखावे की दुनिया से अलग होकर अमल की दुनिया में आने की जरूरत है।

तभी दुनिया हमारे कदमों में होगी वरना हम दुनिया के कदमों में रहेंगे। जरूरत इस बात की है कि शबे मेराज के फलसफे को समझा जाए और फिर नमाज को अव्वलियत देकर पाबंदी की जाए। आज मुसलमान अपने मसायल के लिए दर-दर भटक रहा है कोई मोहताजगी की हालत में है कोई परेशानी की हालत में है।

किसी के घर बीमारी है किसी के घर आपसी झगड़ा है। इन तमाम मसायल का हल नमाज में है। मस्जिद जो अल्लाह का घर है वहां हम नहीं जाते गली मोहल्लों में घंटों एक दूसरे के साथ गपशप और दुनियावी बातों में मसरूफ रहेंगे मगर दस पन्द्रह मिनट का वक्त हमारे पास नमाज पढ़ने का नहीं है। अगर हम नमाज से गफलत करते रहे तो हमारा वजूद व शिनाख्त तक कुचल दी जाएगी।
शबे मेराज का तकाजा नमाज है।

Thursday 10 March 2016

खैबर फतह

अबू मंज़ूर बयान करते हैं कि जब हुज़ूर नबी-ए-अकरम सल अल्लाहू अलैहि वआलेही वसल्लम ने ख़ैबर को फ़तह किया तो आप सल अल्लाहू अलैहि वआलेही वसल्लम ने माल-ए-ग़नीमत में एक स्याह गधा पाया और वो प-ब-ज़ंजीर था। हुज़ूर नबी-ए-अकरम सल अल्लाहू अलैहि वआलेही वसल्लम ने उससे कलाम फ़रमाया तो उसने भी आप सल अल्लाहू अलैहि वआलेही वसल्लम से कलाम किया... हुज़ूर नबी-ए-अकरम सल अल्लाहू अलैहि वआलेही वसल्लम ने उसे फ़रमाया: तुम्हारा नाम क्या है? उसने अर्ज़ किया: मेरा नाम यज़ीद बिन शहाब है, अल्लाह तआला ने मेरे दादा की नस्ल से साठ गधे पैदा किए, उनमें से हर एक पर सिवाए नबी के कोई सवार नहीं हुवा मैं तवक़्क़ो करता था कि आप मुझ पर सवार हों, क्योंकि मेरे दादा की नस्ल में सिवाए मेरे कोई बाक़ी नहीं रहा और अम्बिया-ए-किराम में सिवाए आपके कोई बाक़ी नहीं रहा... मैं आपसे पहले एक यहूदी के पास था, मैं उसे जान-बूझ कर गिरा देता था... वो मुझे भूका रखता और मुझे मारता पीटता था...। रावी बयान करते हैं कि हुज़ूर नबी-ए-अकरम सल अल्लाहू अलैहि वआलेही वसल्लम ने उससे फ़रमाया: आज से तेरा नाम याफ़ूर है...। ऐ याफ़ूर! उसने लब्बैक कहा रावी बयान करते हैं कि हुज़ूर नबी-ए-अकरम सल अल्लाहू अलैहि वआलेही वसल्लम उस पर सवारी फ़रमाया करते थे, और जब उससे नीचे तशरीफ़ लाते तो उसे किसी शख़्स की तरफ़ भेज देते... वो दरवाज़े पर आता उसे अपने सर से खटखटाता और जब घरवाला बाहर आता तो वो उसे इशारा करता कि वो हुज़ूर नबी-ए-अकरम सल अल्लाहू अलैहि वआलेही वसल्लम की बात सुने... पस जब हुज़ूर नबी-ए-अकरम सल अल्लाहू अलैहि वआलेही वसल्लम इस दुनिया से ज़ाहिरी पर्दा फ़र्मा गए तो वो अबू हैसम बिन तैहान के कुँवें पर आया और हुज़ूर नबी-ए-अकरम सल अल्लाहू अलैहि वआलेही वसल्लम के फ़िराक़ के ग़म में उसमें कूद पड़ा, वो कुँआं उसकी क़ब्र बन गया...।

1: (इमाम इब्ने असाकिर, फ़ी तारीख़ मदीना-ओ-दमिश्क़, 4 /232)
2: (इमाम इब्ने कसीर, फ़ी अल बिदाया-वन-निहाया, 6 / 151)

एक मुस्लमान दूसरे मुस्लमान का भाई है

हुज़ूर नबी-ए-अकरम सल अल्लाहू अलैहि वआलेही वसल्लम ने फ़रमाया: एक मुसलमान दूसरे मुसलमान का भाई है, ना वो उस पर ज़ुल्म करता है, और ना उसे बे-यार-ओ-मददगार छोड़ता है। जो शख़्स अपने किसी (मुसलमान) भाई की हाजत-रवाई करता है, अल्लाह तआला उसकी हाजत-रवाई फ़रमाता है। और जो शख़्स किसी मुसलमान की (दुनियावी) मुश्किल हल करता है, अल्लाह तआला उसकी क़यामत की मुश्किलात में से कोई मुश्किल हल फ़रमाएगा, और जो शख़्स किसी मुसलमान की पर्दापोशी करता है, अल्लाह तआला क़यामत के दिन उसकी पर्दापोशी करेगा।

सहीह बुख़ारी, किताबुल मज़ालिम, बाब ला यज़लिमू अल मुस्लिम अल मुस्लिमू वल असलमा, 2 : 862, रक़म : 2310,


Kisi ko bura bhala na kaho


!!....बुदर्बारी.....!!
एक दिन हजरत इमाम जैनुल आबिदीन (रजी अल्लाहु अन्हु) घर से कही तशरिफ ले जा रहे थे की रास्ते मे किसी गुस्ताख ने आपको बुरा भला कहना शुरु कर दिया। हजरत इमाम ने उससे फरमाया की भाई जो कुछ तुमने मुझसे कहा अगर मै वाकइ ऐसा हुं तो खुदा मुझे माफ फरमाये।
यह सुनकर वह शख्स बड़ा शर्मीन्दा हुआ और बढ़कर आपकी पेशानी चुमकर कहने लगा हुजुर! जो कुछ मैनें कहा आप हरगीज ऐसे नही। मै ही झुठा हुं। आप मेरी मग्फिरत की दुआ फरमायें। आपने फरमाया अच्छा जाओ खुदा तुम्हे माफ फरमाये।
(रौजुर्रियहीन, सफा-56)
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✍मुहम्मद अरमान गौस....
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♥सबक : अल्लाह वालो की यह सिरत है की बुराई का बदला कुछ ऐसे तरिके से देते है की खताकार शर्मिन्दा होकर अपनी खता से किनारा कर लेते है और नेकी एख्तियार कर लेते हैं।


इस्लाम में महिलाओ का स्थान

इस्लाम में महिलाओं के सम्मान को लेकर आधुनिक लेखको ने तरह तरह की भ्रांतियां फैला दी हैं । जिसके कारण इस्लाम धर्म को लेकर भी लोगों की ये धारणा है कि वहां नारी की बहुत उपेक्षा होती है, मुसलमान एक से ज़ाया शादियां करते हैं और नारी को मात्र भोग की वस्तु समझा जाता है। उन्हें कोई अधिकार प्राप्त नहीं हैं। लेकिन सच्चाई इससे एकदम अलग है। ये सही है कि लोग इस्लाम की ग़लत व्याख्या करके इसका फ़ायदा उठाते हैं लेकिन इस्लाम में नारी को हव्वा की बेटी को सम्मान के योग्य समझा गया है और उसको मर्द के समान ही अधिकार दिए गए हैं।

              ★इस्लाम में महिलाओं का स्थान★

इस्लाम में महिलाओं को बहुत ऊंचा स्थान दिया गया है और उन्हें जीवन के हर भाग में महत्व दिया गया है। माँ, पत्नी, बेटी, बहन, विधवा और चाची-मौसी के रूप में भी उसे सम्मान दिया गया है।

माँ के रूप में सम्मान

क़ुरआन में साफ कहा गया है कि माँ के प्रति कृतज्ञ होने का मतलब है मेरे (ख़ुदा) के प्रति कृतज्ञ होना। क़ुरआन में लिखा है-“हमने मनुष्य को उसके अपने माँ-बाप के मामले में ताकीद की है – उसकी माँ ने निढाल होकर उसे पेट में रखा और दो वर्ष उसके दूध छूटने में लगे – मेरे प्रति कृतज्ञ हो और अपने माँ-बाप के प्रति भी क्योंकि अंततः तुम्हें मेरी ओर ही आना है।”

कुरआन ने यह भी कहा गया है – “माँ-बाप के साथ अच्छा व्यवहार करो। अगर उनमें से कोई एक या दोनों ही तुम्हारे सामने बूढ़े हो जाते हैं तो उन्हें ‘उँह’ तक न कहो और न उन्हें झिड़को, बल्कि उनसे शिष्टा्पूर्वक बात करो और उनके आगे दयालुता से नम्रता की भुजाएँ फ़ैलाए रखो और कहो, “मेरे रब! जिस प्रकार उन्होंने बालकाल में मुझे पाला है, तू भी उनपर दया कर।”

इस बारे में पैग़बर मुहम्मद एक वाक़्या सुनाते हैं। एक व्यक्ति उनके पास आया और पूछा कि मेरे अच्छे व्यवहार का सब से ज़्यादा अधिकारी कौन है?
पैग़बर ने फरमायाः तुम्हारी माता…।
उसने पूछाः फिर कौन ?
कहाः तुम्हारी माता…।
पूछाः फिर कौन ?
कहाः तुम्हारी माता…।
पूछाः फिर कौन ?
कहाः तुम्हारे पिता ।
यानी मां को पिता की तुलना में तीन गुना अधिक अधिकार प्राप्त है। हदीस में लिखा है कि माता पिता की अवज्ञा का मतलब अल्लाह की अवज्ञा है।

पत्नी के रूप में सम्मान

क़ुरआन में लिखा है कि पुरुष को अपनी पत्नी से भला व्यवहार करना चाहिए। पत्नी में कोई एक बुरी आदत की वजह से पति को उसे बुरा नहीं समझना चाहिए क्योंकि हो सकता है उसमें कुछ अच्छी आदतें बी हों।

बेटी के रूप में सम्मान

पैग़बर मुहम्मद ने फरमाया है कि “जिसने दो बेटियों का पालन-पोषन कर उनका अच्छी जगह निकाह करवा दिया वह इन्सान क़यामत के दिन हमारे साथ होगा। जिसने बेटियों की परवरिश के दैरान कष्ट उठाया और वह उनके साथ अच्छा व्यवहार करता रहा तो यह उसके लिए नरक के दरवाज़े बंद कर देंगी।

बहन के रूप में सम्मान

क़ुरआन में लिखा है कि अगर किसी की तीन बेटियाँ या तीन बहनें हैं और वह उनके साथ अच्छा व्यवहार करता है तो उसे स्वर्ग मिलेगा।

विधवा के रूप में सम्मान

इस्लाम ने विधवाओं की भावनाओं का न सिर्फ़ बड़ा ख़्याल रखा गया है बल्कि उनकी देख भाल और उन पर ख़र्च करने को बड़ा पुण्य बताया गया है।

पैग़बर मुहम्मद ने कहा है: ”विधवाओं और निर्धनों की देख-रेख करने वाला ऐसा है मानो वह हमेशा दिन में रोज़ा रख रहा हो और रात में इबादत कर रहा है।”

ख़ाला ( मौसी ) के रूप में सम्मान

इस्लाम ने खाला के रूप में भी महिलाओं को सम्मनित करते हुए उसे मां का दर्जा दिया गया है।
                 -:इस्लाम में औरत का मुकाम :-

इस्लाम को लेकर यह गलतफहमी है और फैलाई जाती है कि इस्लाम में औरत को कमतर समझा जाता है। सच्चाई इसके उलट है। हम इस्लाम का अध्ययन करें तो पता चलता है कि इस्लाम ने महिला को चौदह सौ  साल पहले वह मुकाम दिया है जो आज के कानून दां भी उसे नहीं दे पाए।
इस्लाम में औरत के मुकाम की एक झलक देखिए।
जीने का अधिकार
शायद आपको हैरत हो कि इस्लाम ने साढ़े चौदह सौ साल पहले स्त्री को दुनिया में आने के साथ ही अधिकारों की शुरुआत कर दी और उसे जीने का अधिकार दिया। यकीन ना हो तो देखिए कुरआन की यह आयत-
          'और जब जिन्दा गाड़ी गई लड़की से पूछा जाएगा, बता तू किस अपराध के कारण मार दी गई?"                                                                                     (कुरआन, 81:8-9)
यही नहीं कुरआन ने उन माता-पिता को भी डांटा जो बेटी के पैदा होने पर अप्रसन्नता व्यक्त करते हैं-
       'और जब इनमें से किसी को बेटी की पैदाइश का समाचार सुनाया जाता है तो उसका चेहरा स्याह पड़ जाता है और वह दु:खी हो उठता है। इस 'बुरी' खबर के कारण वह लोगों से अपना मुँह छिपाता फिरता है। (सोचता है) वह इसे अपमान सहने के लिए जिन्दा रखे या फिर जीवित दफ्न कर दे? कैसे बुरे फैसले हैं जो ये लोग करते हैं।'
                                                  (कुरआन, 16:58-59)
बेटी
इस्लाम के पैगम्बर मुहम्मद सल्ल. ने फरमाया-
बेटी होने पर जो कोई उसे जिंदा नहीं गाड़ेगा (यानी जीने का अधिकार देगा), उसे अपमानित नहीं करेगा और अपने बेटे को बेटी पर तरजीह नहीं देगा तो अल्लाह ऐसे शख्स को जन्नत में जगह देगा।
                                                    (इब्ने हंबल)
अन्तिम ईशदूत हजऱत मुहम्मद सल्ल. ने कहा-
'जो कोई दो बेटियों को प्रेम और न्याय के साथ पाले, यहां तक कि वे बालिग हो जाएं तो वह व्यक्ति मेरे साथ स्वर्ग में इस प्रकार रहेगा (आप ने अपनी दो अंगुलियों को मिलाकर बताया)।
मुहम्मद सल्ल. ने फरमाया-
जिसके तीन बेटियां या तीन बहनें हों या दो बेटियां या दो बहनें हों और वह उनकी अच्छी परवरिश और देखभाल करे और उनके मामले में अल्लाह से डरे तो उस शख्स के लिए जन्नत है। (तिरमिजी)
पत्नी
वर चुनने का अधिकार : इस्लाम ने स्त्री को यह अधिकार दिया है कि वह किसी के विवाह प्रस्ताव को स्वेच्छा से स्वीकार या अस्वीकार कर सकती है। इस्लामी कानून के अनुसार किसी स्त्री का विवाह उसकी स्वीकृति के बिना या उसकी मर्जी के विरुद्ध नहीं किया जा सकता।
बीवी के रूप में भी इस्लाम औरत को इज्जत और अच्छा ओहदा देता है। कोई पुरुष कितना अच्छा है, इसका मापदण्ड इस्लाम ने उसकी पत्नी को बना दिया है। इस्लाम कहता है अच्छा पुरुष वही है जो  अपनी पत्नी के लिए अच्छा है। यानी इंसान के अच्छे होने का मापदण्ड उसकी हमसफर है।
पैगम्बर मुहम्मद सल्ल. ने फरमाया-
तुम में से सर्वश्रेष्ठ इंसान वह है जो अपनी बीवी के  लिए सबसे अच्छा है। (तिरमिजी, अहमद)
शायद आपको ताज्जुब हो लेकिन सच्चाई है कि इस्लाम अपने बीवी बच्चों पर खर्च करने को भी पुण्य का काम मानता है।

 पैगम्बर मुहम्मद सल्ल. ने फरमाया-
तुम अल्लाह की प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए जो भी खर्च करोगे उस पर तुम्हें सवाब (पुण्य) मिलेगा, यहां तक कि उस पर भी जो तुम अपनी बीवी को खिलाते पिलाते हो। (बुखारी,मुस्लिम)।
पैगम्बर मुहम्मद सल्ल. ने कहा-
आदमी अगर अपनी बीवी को कुएं से पानी पिला देता है, तो उसे उस पर बदला और सवाब (पुण्य) दिया जाता है। (अहमद)
मुहम्मद सल्ल. ने फरमाया-
महिलाओं के साथ भलाई करने की मेरी वसीयत का ध्यान रखो। (बुखारी, मुस्लिम)
माँ
क़ुरआन में अल्लाह ने माता-पिता के साथ बेहतर व्यवहार करने का आदेश दिया है,
'तुम्हारे स्वामी ने तुम्हें आदेश दिया है कि उसके सिवा किसी की पूजा न करो और अपने माता-पिता के साथ बेहतरीन व्यवहार करो। यदि उनमें से कोई एक या दोनों बुढ़ापे की उम्र में तुम्हारे पास रहें तो उनसे 'उफ् ' तक न कहो बल्कि उनसे करूणा के शब्द कहो। उनसे दया के साथ पेश आओ और कहो-
'ऐ हमारे पालनहार! उन पर दया कर, जैसे उन्होंने दया के साथ बचपन में मेरी परवरिश की थी।'
                                                                                             (क़ुरआन, 17:23-24)
इस्लाम ने मां का स्थान पिता से भी ऊँचा करार दिया। ईशदूत हजरत मुहम्मद (सल्ल.) ने कहा-
'यदि तुम्हारे माता और पिता तुम्हें एक साथ पुकारें तो पहले मां की पुकार का जवाब दो।'
एक बार एक व्यक्ति ने हजरत मुहम्मद (सल्ल.) से पूछा
'हे ईशदूत, मुझ पर सबसे ज्यादा अधिकार किस का है?'
उन्होंने जवाब दिया 'तुम्हारी माँ का',
'फिर किस का?' उत्तर मिला 'तुम्हारी माँ का',
 'फिर किस का?' फिर उत्तर मिला 'तुम्हारी

रो रो के मुस्तफा ने दरिया बहा दीये है।

.         【रो रो के मुस्तफा ने दरया बहाँ दिये है】

एक मर्तबा तमाम फरिश्तो के सरदार हज़रते जिबराईल अलैहिस्सलाम नबी ए करीम सल्लल्लाहु अलैह व सल्लम कि बारगाह मे हाज़िर हुवे और अर्ज़ कि या रसूलुल्लाह मेने नूह अलैहिस्सलाम कि उम्मत को जहन्नुम मे जाते देखा, ,,मेने हज़रते मूसा अलैहिस्सलाम कि उम्मत को जहन्नुम मे जाते देखा, ,,,मेने ईसा अलैहिस्सलाम कि उम्मत को जहन्नुम मे जाते देखा और इतना फरमाने के बाद जिबराईल अलैहिस्सलाम खामोश हो गये तो आप【स0 अ0 व स0】 ने अर्ज़ किया क्या तुमने मेरी उम्मत को जहन्नुम मे जाते देखा  ??
आप खामोश रहे, ,,फिर पुछा ऐ जिबराईल ये बताओ क्या तुमने मेरी उम्मत को जहन्नुम मे जाते देखा ?? तो ये सुनकर हज़रते जिबराईल ने अर्ज़ किया हाँ या रसूलुल्लाह, ,,,,ईतना सुनना था कि आप【स0 अ0 व स0】 कि आँखो मे आँसु आ गये दिल तङप गया आप बे ईन्तिहाँ रोने लगे और रोते हुवे अपनी उम्मत के गम मे सेहराओ और जंगल मे निकल गये और एक गार 【गुफा】 मे पहुच कर सज्दे मे सर रख कर रोते हुवे बस ये फरमा रहे थे कि "मेरी उम्मत, मेरी उम्मत "ईधर सहाबा किराम रज़ियल्लाहु अन्हु अजमईन अपने आका को मदिने मे ना पाकर बेचेन हो गये कि हमारे आका हुजूर"【स0 अ0 व स0】 कहाँ तशरीफ ले गये सब जगह ढुढ लिया लेकिन कमली वाले आका का कही पता ना चला सहाबा किराम ढुढते ढुढते जब जंगल कि तरफ निकले तो आपको एक बकरी चराने वाला चरवाहा मिला सहाबा किराम ने उससे पुछा कि क्या तुमने मोहम्मदे अरबी【स0 अ0 व स0】को कही देखा है ??
वो चरवाह कहने लगा मुझे नही मालुम तुम किसकी बात कर रहे हो लेकिन उस गुफा मे एक शख्स रो रहा है उनकी दर्द भरी रोने कि अवाज़ सुनकर मेरी बकरियों ने घास को चरना तक छोङ दिया है सहाबा किराम ये सुनकर समझ गये कि ये हमारे आका हुजूर 【स0 अ0 व स0】 हि है उस गुफा मे पहुच कर सहाबा किराम ने देखा कि नबी ए करीम【स0 अ0 व स0】सज्दे मे रखकर अपनी उम्मत के गम मे रो रहे है और रोते हुवे बस अपनी उम्मत को याद कर रहे है ,,,,ज़मिन है कि आपके मुबारक आँसूओ से तर हो गई है लेकिन किसी कि हिम्मत नही हुवी कि हुजूर को सज्दे से उठाए फिर हुजूर कि प्यारी बेटी हज़रत फतिमातुज़्ज़ेहरा रज़ियल्लाहु अन्हा को बुलाया गया ,,,,हजरत फतिमा रज़ियल्लाहु अन्हा ने आ कर अर्ज़ कि या रसूलुल्लाह अपना सरे मुबारक ऊठाईये फिर अल्लाह से दुआ कि या अल्लाह अपने मेहबुब कि उम्मत को अपने मेहबुब के हवाले कर दे ,,,इतने मे जिबराईल अलैहिस्सलाम अल्लाह का पैगाम ले कर तशरीफ ले आए और अर्ज किया या रसूलुल्लाह सज्दे से सरे मुबारक ऊठाईये अल्लाह आपकी उम्मत फेसला आपके हवाले करता है और आपको शफाअत का मकाम अता फरमाता है आपकी शफाअत कुबुल कि जायेगी,,,,,【फतेहुल रब्बानी सफा २६७】

फलसफा -वो हमारे गम मे बेकरार रहते थे और एक हम है कि आपकी मोहब्बत मे आपके बताए हुवे तरीके पर भी ना चल पा रहे है जबकी उसी मे हमारी कामयाबी है क्या यही मोहब्बत का तकाज़ा है ??

आपस में बैर कभी ना रखना।

رسول اللہ صلی اللہ علیہ وسلم نے فرمایا:
 ’’ہفتہ میں دو مرتبہ پیر اور جمعرات کے دن لوگوں کے اعمال اللہ تعالیٰ کے سامنے پیش ہوتے ہیں۔ اللہ تعالیٰ سب مسلمان بندوں کو بخش دیتا ہے، سوائے اس کے جس کی کسی مسلمان بھائی سے عداوت ہو‘‘۔          (مسلم شریف)

Wednesday 9 March 2016

समाज में अमीरि और गरीबी क्यों?

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☆ समाज में अमीरी और गरीबी क्यों ? ….
अल्लाह ने रोज़ी का वितरण अपने (मर्जी) से रखा है, कुछ लोगों को अधिक से अधिक दिया तो कुछ लोगों को कम से कम, हर युग में और हर समाज में मालदार और गरीब दोनों का वजूद रहा है, सवाल यह है कि आखिर अल्लाह ने अमीरी और गरीबी की कल्पना क्यों रखी ?
– इसका उत्तर यह है कि ऐसा अल्लाह ने बहुत बड़ी तत्वदर्शिता के अंतर्गत किया। ताकि एक वर्ग दूसरे वर्ग के काम आ सके, प्रत्येक की आवश्यकताएं एक दूसरे से पूरी होती रहें। अल्लाह ने फरमायाः

♥ अल-कुरान: “और एक को दूसरे पर प्रधानता प्रदान किया ताकि तुम्हें आज़माए उन चीज़ों में जो तुम को दी है.” – (सूरः अन’आन:165)

*मान लें कि यदि सभी लोग मालदार हो जाते तो लोगों का जीवन बिताना कठिन होता, एक का काम दूसरे से हासिल नहीं हो सकता था, और हर एक दूसरे पर आगे बढ़ने की कोशिश करता, इस प्रकार देश और समाज का विनाश होता. जबकि लोगों के स्तर में अंतर होने के कारण अल्लाह ने जिसे कम दिया है उसे कल महाप्रलय के दिन यदि वह ईमान वाला रहा तो वहां की नेमतों से मालामाल करने का वादा किया है।

उसी प्रकार निर्धनों को कुछ ऐसी हार्दिक शान्ति प्रदान की है जिस से मालदारों का दामन खाली है। इसके साथ साथ अल्लाह ने उनके प्रति लोगों के मन में दया-भाव, शुभचिंतन, सहानुभूति की भावना पैदा की, और मानव समाज का अंग सिद्ध किया ताकि धनवान उनका ख्याल करें, यही नहीं अपितु मालदारों को गरीबों पर खर्च करने का आदेश दिया, और उनके मालों में गरीबों का अधिकार ठहराया। अल्लाह तआला ने फरमायाः
♥ अल-कुरान: “अल्लाह के माल में से तुम उन्हें (निर्धनों को) दो जो उसने तुम्हें दिया है।” – (कुरआनः सूरः नूरः33) :

*पता यह चला कि इंसान के पास जो कुछ है उसका अपना नहीं है बल्कि अल्लाह का दिया हुआ है,
– इस लिए यदि मनुष्य कुछ पैसे अल्लाह के रास्ते में खर्च करता है तो उसे इस पर गर्व का कोई अधिकार नहीं है। यह है अल्लाह की वह हिकमत जिस से हमें समाज में निर्धनों के वजूद के प्रति संतुष्टी प्राप्त होती है परन्तु यह कहना कि वह हीन अथवा तुच्छ हैं या उनके पापों का परिणाम है, या उनको किसी विशेष जाकि की सेवा हेतु पैदा किया गया है, बुद्धिसंगत बात नहीं लगती।

आज भारतीय समाज में यही विचार फैलने के कारण कुछ वर्ग पशुओं के समान जीवन बिता रहे हैं। उनको कोई अधिकार प्राप्त नहीं है और स्वयं उन्हों ने भी इस प्रथा को स्वीकार कर लिया है जो मावन जाति पर बहुत बड़ा अत्याचार है।

*इस्लाम ऐसे वर्गों की हर प्रकार से सहायता करने का आदेश देते हुए मालदारों के मालों में उनका अधिकार रखता है और उनको निर्धन होने के कारण किसी भी मानवीय अधिकार से वंचित नहीं रखता। यह है मानव स्वभाव से मेल खाने वाला इस्लाम का प्राकृतिक नियम …

Friday 4 March 2016

जुम्मा के नमाज़ की शुरुवात/jumaa ke namaz ki shuruwat

-: Jumma Ke Namaz Ki Shuruwat :-
» Jumma Ki Namaz Sabse Pehle 12 Rabi-Ul-Awwal 1 Hijri Ko Nabi-E-Paak (Sallallahu Alaihi Wassalam) Ki Imamat Me Parhi Gayi, Jisme Sahabao Ki Tadaat 100 Thi. (Mohsine Insaniyat 703)
∗ Jumme Ki Mubarakbaad Dene Ka Bhi Ajr Hai !!
» Hadees: Aye Musalmano Ke Giroh! Beshaq Ye Jumma Woh Din Hai Jisko Allah Ne Eid Banaya Hai.(Mishkat Hadees No. 123)
» Hadees: Jisne Jumma Ki Mubarakbaad Di, Uss Par Jannat Wajib Hai.
» Hadees: Jab Koi Banda Kisi Momin Bhai Ko Jumma Ki MubarakBaad Deta Hai, Toh Jannat Me Uske Liye 1 Darakht Laga Diya Jata Hai.
∗ Jumme Ke Din Kasrat Se Duruud Parhe !!
» Hadees: Nabi-e-Kareem (Sallallahu Alaihay Wasallam) Ne Farmaya,Jo Mujhpar Jumma Ke Din Durood Parhe, Mai Uski Shafa’at Karunga. (Kanzul Ummat Jild, 1 Safa 225 Hadees : 2236)
» Hadees: Jisne Jumma Ke Din Mujhpar 200 Bar Durood Parha,Uske 200 Saal Ke Guhaan Maaf Ho Gaye.(Kanzul Ummal Hadith No. 2238)
» Hadees: Jo Jumme Ke Din Ya Raat 100 Bar Durood Parhe Uski 100 Hajate Puri Hongi. 70 Aakhirat Me Aur 30 Dunyavi.(Musnad Abu)
∗ Jumme Ki Namaz Na Chhore !!
» Hadees: Jisne Jumme Ki Namaz (2 Rakat Jumma) Se Pehle, 4 Sunnat Namaz Aur Jumma Ke Baad 4 Sunnat, 2 Sunnat, 2 Nafil Parhi, Allah Uss Par Jahannam Ki Aag Haram Kar Dega.(Tizimi V1 Hadees:410)
» Hadees: Jumme Ki Namaz Ke Liye Azan Di Jaye, Toh Tum Allah Ki Yaad Ke Liye Chal Pado, Ke Tumhare Liye Behtar Hai Agar Tum Jante Ho. (Bukhari Sharif)
» Hadees: Juma Ki Namaz Jumma Se Juma Tak Ke Liye Kaffara Hai.Shart Hai Ki Gunah-e-Kabeera Se Bacha Jaye.(Muslim Sharif)
» Hadees: Jo Shaks Jumma Ki Namaz Jama’at Ke Sath Parhta Hai,Allah Uske Liye 1 Maqbool Haj Ka Sawab Likhta Hai.(Ghuniya-Tul-Taliban)
» Hadees: Jo Shakhs Bagair Kisi Uzr Ke “3″ Juma Ki Namaze Chhor Deta Hai,Allah Ta’ala UsKe Dil Par Mohar Laga Deta Hai (Ibn-E-Maja, Jild-1, Page No.75)
» Hadees: Jo Shakhs Khutba Shuru Hone Ke Bad Harkat Karta Hai, Ya Pehlu Badalta Hai Woh Lagr(Bekar) Amal Hai. Khutba Shuru Hone Ke Baad Batein Karne Wala Ghada (Donkey) Hai.(Ahmad,Tibrani)
» Hadees: Jumma Ke Din-Raat Me 24 Pal Hai, Har Pal Me Allah Ta’ala 600 Jahannamiyon Ko Jahannam Se Azaad Kar Deta Hai.(Abu Ya’ala)
∗ Jumme Ke Din Khas Tor Se Gusl Kare, Ye Jumma Ki Sunnato Me Se 1 Hai !!
» Hadees: Nabi-E-Akram (Sallallahu Alaihay Wasallam) Ne Farmaya,Har Baaligh Par Jumma Ke Din Ghusl Karna Waajib Hai.(Bukhari J:1 S:121)
» Hadees: Jumma Ka Gusl Aadmi Ke Gunaho Ko, Uski Baal Ke Jad Se Kheech Leta Hai.(Tibrani)
» Hadees: Jo Shaks Jumma Ke Din Gusl Karke Awwal Waqt Me Masjid Jaye,Goya Usne Oont(Camel) Ki Qurbani Ki.(Muslim Sharif)
∗ Duao Ki Qubuliyat Ka Din Bhi Hai Jumma !!
» Hadees: Juma Ke Din Ek Pal Hai Jo Bhi Dua Iss Pal Me Ki Jaye Woh Qubool Hoti Hai. Jo Shakhs Jumma Ke Din Sura-E-Kahaf Padhega Toh Uske Liye Dono Jumma Ke Darmiyan Ek Noor Chamakta Rahega.(Nisaai Sharif)
» Hadees: Jumma Ke Din 1 Neki Ka Sawab, 70 Guna (7o Times) Aur Gunaah Karne Ka Azab 70 Guna Se Bhi Zyada Hai.(Mirat Jil 2 Page323)
∗ Jumma Ki Sunnate
» Gusl Karna, Saaf Kapde Pehanna, Khushbu Tel Surma Lagana, Nakhun Katna, Masjid Jald Jana Aur Paidal Jana, Sureh Kahaf Parhna, Musafa Karna Aur Jumma Ki Mubarakbad Dena.
Sabak : Toh Mere Bhaiyo Aur Behno. !! Ye Toh Sirf Kuchh Hi Fazilate Likhi Hai, Jumme Ki Toh Itni Fazilat Hai Ke Aap Soch Bhi Nahi Sakte. Ye Gareebo Ka Haj Hai, Gunaho Ka Kaffara Hai, Dua Ke Qubuliyat Ka Din Hai.
Isliye Jumme Ki Taiyari Eid Ki Tarha Kare, Khub Durood Parhe Aur Sunnato Par Amal Kare. Aur Ise Jitna Ho Sake Failaye.(SHARE KARE)
Allah Uss bande Ko Beshumar Neamato Se Nawaje Jisne Yeh Nayab Mubarak Baatein Ham Tak Pohchayi.
Likhne Me Koi Galti Hui Ho Toh Hame Zarur Ittela Kare…
!!!! Dua Ki Darkhwast !!!!
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Allah hamen islami Masail ko sikhne aur samajhne Ki toufiq ataa farmaye  *Aameen*

जुमा की नमाज़/jumaa ki namaz

जुमा की नमाज हर आजाद और तन्दुरुस्त मुसलमान पर
फर्ज है ।मरीज गुलाम मुसाफिर, औरत ,लड़के (वे लड़के
जो ना-बालिक है ) बीमार इस से अलग है । ईमाम और
ईमाम के अलावा अगर दो आदमी और
हो तो जुमा की नमाज के लीये शहर या बड़े कस्बे
का होना शर्त है । मामूली गाँव हो तो उस में
जुमा की नमाज फर्ज नही है । वहाँ के लोगों को जूहर
की नमाज अदा करनी चाहिये । जुमा के दिन नहा कर ,
पाक व साफ कपड़े पहने और जितना सवेरे हो सके मस्जिद
में जाकर कलाम पाक की तीलावत करे और खुदा से दुआ
माँगे । अगर किसी वजह से देर हो जाए
तो जुमा की अजान पहले जरूर पहुँच जाए । अगर जवाल
का वक्त न हो तो पहले दो रकात नमाज पढ़ ले , फिर बैठे ।
दो रकाअत नमाज मस्जिद मे दाखिल होने का तोहफा है ,
फिर चार रकअत सुन्नत जुमा की नमाज से पहले पढ़े । इस
के बाद जब ईमाम खुत्बा पढ़ने के लीये मिम्बर पर बैठे
या ईमाम खुत्बा पड़ता हो , उस वक्त किसी किस्म
की बात न करे और न नमाज पढ़े , बल्कि खामोश रहे और
गौर से खुत्बा सुने , चाहे समझे या ना समझे , सर खोल कर
या टेक लगा कर ना बैठे । जुमा की नमाज शरई उजर के
बगैर छोड़ना बहुत बड़ा गुना है अगर किसी वजह से नमाज
ना मिले तो उस को जुह अदा कर लेनी चाहिये....

याजूज माजूज/yajuj Majuj


बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम.
किस्सा याजूज माजूज।
दज्जाल के खात्मे के बाद हजरत ईसा अलैहिस्सलाम को अल्लाह की तरफ़ से हुक्म होगा ऐ ईसा! तुम सारे मुसलमानों को कोहेतूर पर ले जाओ...। (कोहेतूर जो अरब के एक पहाड़ का नाम है...।)
अल्लाह तआला का फ़रमान होगा: अब हम अपनी ऐसी मखलूक को निकालने वाले हैं कि किसी के अंदर उनसे मुक़ाबले की ताक़त नही है... वो याजूज माजूज हैं...।

याजूज माजूज हज़रत आदम अलैहिस्सलाम की नस्ल से हैं, हज़रत आदम अलैहिस्सलाम के शुरुआती तीन बेटे हाम, शाम, याफिज़ उनमें से एक बेटे की औलाद हैं याजूज माजूज...।

ये इंतिहाई जाहिल, अनपढ़, काफ़िर, खूंखार, जंगली किस्म के लोग हैं ये दुनिया के किसी कोने में आज भी आबाद हैं... यकीनी तौर पर कोई नहीं बता सकता ये कहाँ आबाद हैं...।

साइंसदानो ने बहुत खोज की लेकिन वो इनका पता नहीं लगा सके, और कभी पता लगा भी नहीं सकते क्योंकि अल्लाह तआला इनको कयामत के करीब ज़ाहिर करेगा...। हज़रत जुलकरनैन जो उस वक़्त के बादशाह थे जिनकी बादशाहत को कुरआन ने ब्यान किया है उनकी रियाया (प्रजा) ने याजूज माजूज के जुल्म-ओ-सितम और कत्ल-ओ-गारी की अपने बादशाह से शिकायत की और तब हज़रत जुलकरनैन ने अपनी रियाया की मदद से याजूज माजूज की पूरी कौम को एक दिवार के पीछे बंद कर दिया... याजूज माजूज की ताकत को मद्दे नज़र रखते हुए बादशाह जुलकरनैन ने दिवार को तांबे के लुआब से बनबाया...।

उधर जब ईसा अलैहिस्सलाम सारे मुसलमानों को लेकर कोहेतूर पर पहुंच जाएंगे तभी अल्लाह पाक़ याजूज माजूज को आज़ाद कर देगा आज़ाद होते ही ये कौम सारी जमीन पर फैल जाएंगी फिर लूट, मार, कत्लो, गारत, हलाकत, तबाही, बर्बादी शुरू कर देगी...।

जब याजूज माज़ूज़ की फौज़ की पहली टुकड़ी मुल्क शाम के वहर ऐ तवरिया (मुल्क शाम की नदी) के पास से गुज़रेगी तो दरिया का सारा पानी पी जाएगी... जबकि वहर ऐ तवरिया जो दरिया है उसकी लम्बाई तकरीबन 10 मील है...। पहली टुकड़ी दरिया का सारा पानी पी के दरिया को खुश्क कर देगी, जब पीछे वाले लोग दरिया के पास पहुंचेगे तो एक दूसरे से कहेंगे यहाँ किसी ज़माने में पानी होगा,  जबकि वो इस बात से गाफ़िल होंगे कि अभी अभी हमारे भाईयों ने पानी पिया है...। फिर एक दूसरे से कहेंगे हमने ज़मीन की सारी मखलूक को मार दिया अब जो असमान में मखलूक है उसे भी मारना चाहिये, फिर ये लोग जबल ए खमर पहुंच जायेंगे... जबल ए खमर बैतूल मुकद्दस के करीब एक पहाड़ का नाम है, वहां खड़े होकर ये आसमानों की तरफ़ तीर चलाएंगे तीर जब वापस आएगा तो वो तीर खून में सना होगा,  याजूज माजूज बड़े खुश होंगे कि आसमान की मखलूक को भी मार दिया...।  अल्लाह जाने वो तीर परिंदों के खून से सने होंगे या अल्लाह की कुदरत से उनपर खून लगेगा बहरहाल याजूज माजूज ख़ुशी से झूम उठेंगे...।

उधर जो ईसा अलैहिस्सलाम मुसलमानों के साथ कोहेतूर पर होंगे वहां खाने पीने की चीजों का ये आलम हो जाएगा की एक भेड़ के सर की कीमत 100 दीनार से ज्यादा होगी, क्योंकि ज़मीन पर उतरने का मौक़ा नही होगा खाने पीने की चीज़े नायाब हो जाएंगी...।
फिर हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम और सारे मुसलमान मिलकर अल्लाह से दुआ करेंगे कि ऐ अल्लाह! हमें याजूज माजूज के फितने से निजात दिला... अल्लाह दुआ को कुबूल कर लेगा और याजूज माजूज की तरफ़ नवफ़ की बीमारी भेज देगा... नवफ़ की बीमारी जो आज कल जानवरों में हो जाती है जिससे जानवर की गर्दन में कीड़े पढ़ने लगते हैं और जानवर मर जाता है...।

मज़ीद मालूमात के लिए पढ़े मुफ़्ती अब्दुर रऊफ सखरवी दारुल इफ्ता करांची की किताब "(याजूज माजूज)"

Saturday 20 February 2016

मैं बात कर रहा हूँ इस्लाम के आख़री नबी हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम°)

हिन्दू/मुस्लिम सभी भाई इस पर गौर करें-
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मैं बात कर रहा हूँ इस्लाम के आख़री नबी हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम°)की.
आप(सल्लल्लाहु°अलयहि°वसल्लम°)ने औरतों के हक़ में उस वक़्त आवाज़ उठाई जिस दौर में बेटियों को जिंदा दफना दिया जाता था।और विधवाओं को जीने तक का अधिकार न था,हाँ ये वही मुहम्मद
(सल्लल्लाहु°अलयही °वसल्लम°) हैं,जिन्होंने एक गरीब नीग्रो बिलाल (रजियल्लाहु अन्हु ) को अपने गले से लगाया,
अपने कंधों पर बैठाया,
और इस्लाम का पहला
मुअज़्ज़िन मुक़र्रर किया....
वही मुहम्मद(सल्लल्लाहु°अलयहि°वसल्लम)
जिन्होंने कहा की मज़दूर का मेहनताना उसका पसीना सूखने से पहले अदा करो।
मज़दूर पर उसकी ताक़त से ज़्यादा बोझ न डालो,यहाँ तक कि काम में मज़दूर का हाथ बंटाओ....
वही मुहम्मद(सल्लल्लाहु°अलयहि°वसल्लम°)
जिन्होंने कहा की-वो इंसान मुसलमान नहीं हो सकता जिसका पड़ोसी भूखा
सोये,चाहे वो किसी भी मज़हब का हो
वही मुहम्मद(सल्लल्लाहु°अलयहि°वसल्लम°)
जिन्होंने कहा कि अगर किसी ग़ैर मुस्लिम पर
किसी ने ज़ुल्म किया तो अल्लाह की अदालत में वो खुद उस ग़ैर मुस्लिम की वक़ालत करेंगे...
वही मुहम्मद(सल्लल्लाहु°अलयहि°वसल्लम°)
जिन्होंने अपने ऊपर कूड़ा फेंकने वाली बुज़ुर्ग औरत का जवाब हमेशा मुस्कुरा कर दिया और
उसके बीमार हो जाने पर ख़ुद खैरियत पूछने जाते हैं....
हाँ वही मुहम्मद(सल्लल्लाहु°अलयहि°वसल्लम°)
जिन्होंने कहा की दूसरे मज़हब का मज़ाक न बनाओ...
वही मुहम्मद(सल्लल्लाहु°अलयहि°वसल्लम°)
जिन्होंने जंग के भी आदाब तय किये कि सिर्फ अपने बचाव में ही हथियार उठाओ...
बच्चों, बूढ़ों और औरतों पर हमला न करो
बल्कि पहले उन्हें किसी महफूज़ जगह पहुँचा दो...
यहाँ तक कि पेड़ पौधों को भी नुक़सान ना पहुंचाने की
हिदायत दी.उस अज़ीमुश्शान शख्सियत के बारे में लिखते-लिखते क़लम थक जायेगी मगर उसकी शान
कभी बयान न हो पायेगी...उन पर हमारी जान क़ुर्बान....
आजकल हिन्दू / ग़ैर-मुस्लिम भाई बहुत परेशान रहते हैं
इस्लाम को लेकर.... उनको बताना चाहुंगा कि
अगर कोई इन्सान ग़लती करता है तो वो इन्सान बुरा होता है उसका धर्म/मज़हब नहीं....
21 वीं सदी मे बहुत ऐसे लोग हैं जो दुनिया मे इतना मगन हो गये हैं कि जिनको खुद इस्लाम की नाॅलेज नहीं है तो वो बच्चों को क्या इस्लाम के बारे मै बतायेंगे..
याद रखो... इस्लाम 100% पाक ओर साफ मज़हब है..
किसी के कहने सुनने पर उसे बुरा ना कहो...और अब भी अगर आपके दिमाग़ में इस्लाम को लेकर
कोई ग़लतफ़हमी है तो आप खुद मुहम्मद(सल्लल्लाहु°अलयहि°वसल्लम) की जीवनी(लाइफ हिस्ट्री)
पढ़कर देखें...आपको ज़र्रा (प्वाइंट) बराबर भी ग़लती नज़र नहीं आयेगी..!!!
अगर कोई मुस्लिम ग़लती/बत्तमीज़ी करता दिखे तो आप उससे सिर्फ़ इतना बोलना कि क्या नबी मुहम्मद (सल्लल्लाहु°अलयहि°वसल्लम) ने आपको यही सिखाया है???
तुमको अल्लाह का ज़रा भी डर नहीं.????
सच्चा मुसलमान होगा तो शर्म से पानी पानी होकर तौबा कर लेगा..!!!!
प्लीज़ आपसे रिक्वेस्ट है कि इस मैसेज को फारवर्ड
कर के इस्लाम के लिये जो लोगों के दिल-ओ-दिमाग़
मे नाइत्तिफाक़ी/बुराई है उसे दूर करने में हमारी
मदद करें...
शुक्रिया ।